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महाराजा अजितसिंहजी इसके बाद ही दुर्गादास आदि सरदारों ने शाहजादे अकबर से मिलकर नाडोल में उसका बादशाह होना घोषित कर दिया, और साथ ही ये लोग ऊक्त नवीन बादशाह को लेकर पुराने बादशाह औरङ्गजेब पर चढ़ चले । जैसे ही इसकी सूचना औरङ्गजेब को मिली, वैसे ही एक बार तो वह बिलकुल ही घबरा गया; क्योंकि उस समय उसके पास कुल मिलाकर दस हज़ार से भी कम अनुयायी थे। अतः उसने अपने निवासस्थान के चारों तरफ़ मोरचे बँधवाकर पास की पहाड़ियों पर तोपें लगवा दी। इसी बीच वि० सं० १७३७ की माघ बदी ३० ( ई० सन् १६८१ की 8 जनवरी ) को शहाबुद्दीनखाँ, जो सोनग और दुर्गादास को गुजरात की तरफ़ जाकर उपद्रव करने से रोकने के लिये सिरोही की तरफ़ भेजा गया था, अजमेर लौट आया। यह मीरकखाँ को भी, जो शाहज़ादे अकबर के साथ था, समझा बुझाकर अपने साथ ले आया था। परन्तु अपने बादशाहत पाने की खुशी में मस्त हुए और नाच-रंग में लगे अकबर ने इधर कुछ भी ध्यान नहीं दिया । इसी प्रकार धीरे-धीरे और भी कई अमीर उसकी सेना से निकल गएँ ।
जब चार-पाँच दिनों में इधर-उधर से आकर कुछ और सेना औरङ्गजेब के शिविर में इकट्ठी हो गई, तब वि० सं० १७३७ की माघ सुदि ४ ( ई० सन् १६८१ की १३ जनवरी ) को वह अजमेर से निकल कर ६ मील दक्षिण के दोवराई नामक गाँव में पहुँचा । वहीं पर उसे शाहजादे अकबर और राजपूत सैनिकों के कुड़की में (अजमेर से नैर्ऋत कोण में २४ मील पर ) होने की सूचना
१. यह घटना वि० सं० १७३७ की माघ बदी ६ (ई० सन् १६८१ की ३ जनवरी)
की है। 'हिस्ट्री ऑफ़ औरंगजेब' ( भा० ३ पृ० ३६८) में इस घटना का समय ई० सन् १६८१ की १ जनवरी लिखा है । उसमें यह भी लिखा है कि इस कार्य में महाराना राजसिंह का भी हाथ था । परन्तु २२ अक्टोबर (वि० सं० १७३७ की कार्तिक सुदी १०) को उनकी मृत्यु हो जाने से उस समय यह कार्य न हो सका । अतः कुछ दिन बाद उनके उत्तराधिकारी महाराना जयसिंह के समय यह कार्य संपन्न हुआ। (देखो भा० ३, पृ० ४०५)।
२. मासिरेआलमगीरी, पृ० १६६-१६६ । ३. इसी बीच हामिदखाँ भी बादशाह के पास पहुँच गया था, और शाहज़ादा मुअज्जम भी
शीघ्र ही पहुँचने वाला था।
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