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मारवाड़ का इतिहास
वि० सं० १७४७ के मँगसिर (ई० स० १६६० के नवम्बर ) में अजमेर के शाही सेनापति शफ़ीखाँ ने महाराज को धोका देकर पकड़ लेने का इरादा किया, और इसीके अनुसार उसने इन्हें अजमेर आकर मारवाड़ के शासन का बादशाही फ़रमान ले जाने की सूचना दी । महाराज भी शफ़ीखाँ का पत्र पाकर अपने दल-बल सहित सिवाने से अजमेर की तरफ़ चले । यद्यपि इनके दल-बल को देख उसकी हिम्मत इनके पकड़ने की न हुई, तथापि इनके इधर चले आने से यवनों ने सिवाने पर अधिकार कर उसे जोधा सुजानसिंह को सौंप दिया । जैसे ही महाराज को इस कपट का पता चला, वैसे ही यह समेल के पहाड़ों में चले गएँ ।
वि० सं० १७४८ (ई० स० १६९१ ) में महाराना जयसिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंहजी ने पिता से राज्य छीन लेने का विचार किया । इस पर महाराना तत्काल कुंभलगढ़ चले आए, और वहां से उन्होंने मेड़तिये गोपीनाथ की सलाह के अनुसार महाराज अजितसिंहजी के पास आदमी भेजकर इनसे सहायता की प्रार्थना की। इस पर महाराज की तरफ़ से चांपावत उदयसिंह और दुर्गादास उनकी मदद में भेजे गए । इन्होंने वहां पहुँच साम, दान और भय द्वारा राजकुमार को शांत कर दिया । इस प्रकार पिता-पुत्र के बीच संधि हो जाने पर रानाजी उदयपुर चले गए और
सरदारों को चौथ (आमदनी का चौथा हिस्सा ) देने का हाल सुन दक्षिण से उसके
नाम उलाहना लिख भेजना लिखा है । ( देखो छन्द १६५०-१७१४)। १. 'अजितग्रन्थ' में वि० सं० १७५१ की ज्येष्ठ सुदी में अजमेर के फ़ौजदार शफ़ीखाँ का मरना
लिखा है । ( देखो पृ० ३६५) उसमें यह भी लिखा है कि इसके बाद इसका काम
हामिदखाँ को सौंपा गया । ( देखो पृ० ३६७) । २. यह पिंशांगण का था । 'राजरूपक' में सिवाना लेने का कुछ भी उल्लेख नहीं है । ( हस्त
लिखित कापी, पृ० १३२-१३३)। ३. 'अजितग्रन्य' में इस घटना का वि० सं० १७४६ के आश्विन में होना लिखा है । ( देखो
पृ० ३१५ और ३५६ )। 'हिस्ट्री ऑफ़ औरङ्गजेब' में ई० सन् १६६० में दुर्गादास द्वारा अजमेर में शफ़ीखाँ का हराया जाना लिखा है । उसमें यह भी लिखा है कि इस घटना की सूचना पाकर शुजाअतखाँ को मारवाड़ में
आना पड़ा और इसी समय उसने व्यापारियों के माल के लगान का चौथा हिस्सा राठोड़ों को देना तय किया । ( देखो भा० ५, पृ० २७८-२७६)।
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