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महाराजा अजितसिंहजी इधर अनूपसिंह ने करमसोतों और कूँपावतों को लेकर लूनी के आस-पास मारकाट मचाई, और उधर मोहम्मद अली ने मौका पाकर मेड़ता छीन लेने के लिये चढ़ाई की । परन्तु जब यवन-सेनापति को सम्मुख युद्ध में विजय की आशा न दिखाई दी, तब उसने मेड़तिया मोकमसिंह को संधि के बहाने अपने पास बुलवाकर मार डाला ।
इसके बाद कूँपावत, भाटी और चौहान - वीरों ने जोधपुर पर चढ़ाई की। यह देख मुगल सैनिक भी मुक़ाबले में आ डटे । युद्ध होने पर महाराज की तरफ़ के अनेक वीर मारे गए । इस पर संग्रामसिंह ने शाही मनसब की आशा छोड़ अपने वंशवालों का साथ दिया, और सुरजाँ में मार-काट कर बालोतरे और पचपदरे को लूट लियौ ।
जोधा उदयभान के उपद्रव से तंग आकर शाही फौज ने भादराजन पर चढ़ाई की । परन्तु युद्ध में उदयभान के आगे वह सफल मनोरथ न हो सैंकी ।
वि० सं० १७४२ ( ई० सन् १६८५ ) के लगते ही में पुरदिलखाँ पर हमला कर उसे मार डाला, और चैत्र सुदी की २ अप्रेल ) को सिवाने का किला छीन लियो ।
इसी प्रकार अन्य राजपूत - वीर भी अपने बालक महाराज की अनुपस्थिति में अपने-अपने दलों को साथ लेकर इधर-उधर घूमते रहते थे, और जब जहाँ मौक़ा पाते, तब वहीं यवनों पर आक्रमण कर उनका नाश करते थे ।
कूँपावत - वीरों ने काणा
= ( ई० सन् १६८५
१. 'राजरूपक' में वि० सं० १७४१ के वैशाख में इस युद्ध का होना लिखा है । (देखो पृ० १०४) ।
२. 'राजरूपक' में इस घटना का समय १७४१ की आषाढ़ सुदी ६ लिखा है । ( देखो पृ० १०५ ) ।
३. राजरूपक, पृ० १०५-११० ।
४. 'राजरूपक' में इस युद्ध का वि० सं० १७४१ की माघ सुदी ७ को होना लिखा है । ( देखो पृ० १११ ) ।
'अजितग्रन्थ' में भी इस घटना की यही तिथि लिखी है । ( देखो छंद १११२ ) ।
५. एशियाटिक सोसाइटी, बंगाल की छपी 'मासिरे आलमगीरी' में इस घटना का १२ दिन बाद वैशाख बदी ६ ( १४ अप्रैल) को होना लिखा है । ( देखो पृ० २५६ ) 'अजितग्रन्थ' में लिखा है कि वि० सं० १७४१ के ज्येष्ठ में पुरदिल को सिवाना मिला था, और १० मास बाद फागुन में उसने उस पर अधिकार किया था । (देखो पृ० १६२ की वार्ता और छंद ११३८ ) ।
६. उस समय मारवाड़ के अनेक सरदार जहाँ तहाँ यवनों से लोहा लेने में लगे थे । अतः उन सब के किए युद्धों का अलग-अलग वर्णन करना कठिन होने के कारण ही यहाँ पर केवल मुख्य-मुख्य लड़ाइयों का संक्षिप्त हाल दिया गया है ।
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