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मारवाड़ का इतिहास मिली । उस समय अकबर के पास करीब १६ हज़ार सेना थी । तीसरे दिन बादशाह औरङ्गजेब वहाँ से और भी दो चार मील दक्षिण के दोराहा स्थान पर पहुँची । परन्तु यहाँ से आगे बढ़ने की उसकी हिम्मत न हुई ।
जैसे-जैसे शाहजादे अकबर और बादशाह औरङ्गजेब की सेनाएँ परस्पर निकट होती जाती थीं, वैसे-वैसे बादशाही अमीर अकबर की सेना से निकल-निकलकर शाही लश्कर में मिलते जाते थे । यहीं पर शाहजादा मुअज्जम भी, मेवाड़ से आकर, शाही लश्कर के साथ हो गया । इसके बाद यहाँ से बादशाह ने पहले तो पत्र लिखकर अकबर को धोका देने की चेष्टा की; परन्तु जब इसमें उसे सफ़लता नहीं हुई, तब उसने उसके सेनापति तहव्वरखाँ को ( उसके ससुर ) इनायतखाँ के द्वारा भय और लालच दिखलाकर अपनी तरफ़ मिला लिया । इस पर वह पहर रात जाने पर चुपचाप अकबर के शिविर से निकल बादशाह की डेवढ़ी पर जा पहुँचा । परन्तु वहाँ पर शस्त्र खोलकर अन्दर जाने से इनकार करने पर मार डाला गया ।
इसी बीच राठोड़ों को भी तहव्वर के बादशाह के पास चले जाने की सूचना मिल गई । इससे ये संदेह में पड़ गए और इनका विश्वास अकबर पर से उठ गयो । ऐसी अवस्था में ये लोग उसका साथ छोड़ पीछे हट गए । जब १. 'हिस्ट्री ऑफ़ औरंगजेब' में ३० हज़ार सेना का होना लिखा है । (देखो भाग ३,
पृ० ४१०)। २. 'हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब' में लिखा है कि यहाँ से दो रास्ते निकलते थे। एक पश्चिम
की तरफ़ ब्यावर होता हुआ मारवाड़ को, और दूसरा पूर्व की तरफ़ आगरे को जाता था ।
(देखो भा० ३, पृ० ४१०)। ३. 'मासिरे-आलमगीरी' में बादशाहकुलीखाँ नाम लिखा है । (देखो पृ० २००-२०१)
यह तहव्वरखाँ ही का ख़िताब था, जो बादशाह ने उसकी मेवाड़ के रणस्थल में दिखलाई हुई वीरता के उपलक्ष में दिया था । (देखो मासिरुलउमरा, भा० १, पृ० ४४८
और हिस्ट्री ऑफ़ औरंगजेब, भा० ३, पृ० ३६६)। ४. उस समय दोनों सेनाओं के बीच केवल ३ मील का फासला था। ५. 'राजरूपक' में लिखा है कि जिस समय तहव्वरखाँ बादशाह के पास जाने लगा, उस समय
उसने राठोड़ों से भी कहला दिया कि मैंने आपके और शाहज़ादे अकबर के बीच पड़कर संधि करवाई थी। परन्तु मुझे शाहज़ादे के बादशाह से मिल जाने का संदेह होता है। अतः अब मैं इसकी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं रख सकता । आप लोगों को मी मावधान होकर लौट जाना चाहिए।
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