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मारवाड़ का इतिहास अपने थोड़े से वीरों के साथ जाते हुए देख शाहज़ादों के सैनिकों ने उनका पीछा करने का विचार किया, तथापि औरङ्गजेब ने, जो राठोड़ों की तलवारों का पानी देख चुका
"औरंगजेब को भय था कि कहीं बादशाही सेना नदी के पार उतर कर उसके थके-माँदे सैनिकों पर आक्रमण न कर दे । औरंगजेब का ऐसा सोचना उचित था; क्योंकि उस समय उसके सैनिक सचमुच लड़ने योग्य नहीं थे | यदि कासिमला और राजा साहब इस अवसर पर आक्रमण कर देते, तो जीत अवश्य उन्हीं की होती । परन्तु कासिम हाँ और राजा साहब ऐसा किस तरह करते; क्योंकि उनको तो बादशाह की गुप्त आज्ञा के कारण केवल इतना ही करने का अधिकार था कि नदी के इस पार उपस्थित रहें और यदि औरंगज़ेब इस तरफ़ आना चाहे; तो उसे रोकें ।
"राजा जसवंतसिंह ने बड़ी ही वीरता और युक्ति से शत्रुओं को पद-पद पर रोका । परन्तु कासिमखाँ ने इस अवसर पर न तो कुछ वीरता ही दिखलाई, न कुछ सामरिक युक्ति ही प्रकट की। उलटा उस पर यह संदेह किया जाता है कि इस अवसर पर उसने विश्वासघातकता की, और लड़ाई मे पहले ही रात के समय अपनी ओर की सब गोली-बारूद रेत में छिपा दी । इसका यह परिणाम हुआ कि लड़ाई के समय कई बाढ़ दागने के बाद इधर की सेना के पास इस प्रकार का कोई सामान न रहा । अस्तु, कुछ भी हो, परन्तु युद्ध घमसान हुआ, और घाट के रोकने में सैनिकों ने बड़ी वीरता दिखाई । उधर औरंगज़ेब की यह दशा हुई कि बड़े-बड़े पत्थरों के कारण, जो नदी के पाट में थे, उसको बहत कष्ट हया और किनारों की ऊंचाई के कारण ऊपर चढना दस्तर जान पडा । तथापि मुरादबख्श के साहस ने इन सब कठिनाइयों को दूर कर दिया । वह अपनी सेना के साथ पार उतर आया, और पीछे से बाक़ी सैनिक भी बहुत शीघ्र आ पहुँचे । उस समय कासिमखाँ जसवंतसिंह को घोर संकट में छोड़कर बड़ी अप्रतिष्ठा के साथ लड़ाई के मैदान से भाग निकला। इससे यद्यपि वीर राजा जसवंतसिंह पर चारों ओर से शत्रु-सैन्य टूट पड़ा, तथापि उसके साथ के साहसी राजपूतों ने अपने प्राणों की बलि दे उसे बचा लिया । लड़ाई के प्रारंभ में इन वीरों की संख्या ८,००० थी । परन्तु इस भयंकर युद्ध के बाद इनमें से केवल ६०० ही जीवित बचे थे । इस घटना के बाद अपना
आगरे जाना उचित न जान राजा जसवंत इन बचे हुए स्वामिभक्त सैनिकों के साथ अपने देश को चले गए।"
बर्नियर की भारत-यात्रा (हिन्दी-अनुवाद), भा० १, पृ० ४०-४२ । कर्नल टाड ने महाराज पर यह दोष लगाया है कि यदि वह मुराद और औरंगज़ेब को आपस में मिलने न देकर पहले ही युद्ध छेड़ देते, तो औरंगजेब को सफलता न होती (टॉड का राजस्थान का इतिहास (कुक-संपादित), भा॰ २, पृ० ६८०)। परन्तु उस समय के तटस्थ लेखक बर्नियर के ऊपर उद्धृत किए लेख से यह और इसी प्रकार के अन्य दोष भी निवृत्त हो जाते हैं ।
आगे बर्नियर ने महाराज जसवंत सिंहजी के असफल होकर लौटने पर इनकी सीसोदनी गनी का किले के द्वार बंद करवा देना और अंत में अपनी माता के आकर समझाने पर शांत होना लिखा है (बर्नियर की भारत-यात्रा, भा० १, पृ० ४३-४४) । वीरविनोद के लेखक ने भी इस कथा का उल्लेख कर इस रानी को बूंदी के राव हाडा शत्रुसाल की कन्या लिखा है । 'मुतख़बुललुबाब'
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