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महाराजा जसवंतसिंहजी (प्रथम के माफ़िक फिर इनके लिये खिलअत भेजा गर्यो । इसके बाद जब महाराज के साथ की सेना का नामदारखाँ नामक-एक अफ़सर भादों वदि १० (६ अगस्त) को बादशाह के पास हाज़िर हुआ, तब उसने फिर शाहजादे मुहम्मद मुअज्जम और महाराज के लिये बरसाती खिलअते भेजे । इस प्रकार इधर बादशाह समय-समय पर इनका सत्कार कर इनका प्रेम-संपादन करने की कोशिश करता था और उधर महाराज धीरे-धीरे शिवाजी के अधिकृत किलों पर अधिकार कर उनके उपद्रव को नष्ट करने की चेष्टा कर रहे थे । कुंडा के दुर्ग को विजय करने में भी इन्होंने अद्भुत वीरता दिखाई थी । परन्तु बादशाह की इच्छा थी कि जहाँ तक हो जल्दी ही शिवाजी का सारा बल नष्ट कर दिया जाय । यह बात महाराज को पसंद न थी; क्योंकि यह शिवाजी जैसे पराक्रमी हिन्दू-राजा का बल नष्ट कर औरंगजेब जैसे धर्मान्ध यवन-नरेश को और भी उत्पात करने का मौका देना अनुचित समझते थे । इसी से उनकी भीतरी सहानुभूति शिवाजी के साथ रहा करती थी । इसलिये कार्तिक वदि ६ ( ३० सितम्बर ) के करीब बादशाह ने इनके स्थान पर आंबेर-नरेश जयसिंहजी को नियत कर इन्हें अपने पास बुलवा लियाँ । अतः चैत्र वदि १२ ( ई० सन् १६६५ की ३ मार्च ) को इन्होंने महाराज जयसिंहजी को वहाँ की सेना के संचालन का भार सौंप दियाँ
और वि० सं० १७२२ की जेष्ठ सुदि ६ (१३ मई ) को यह दक्षिण से दिल्ली चले आए । इस पर बादशाह ने इन्हें खिलअत आदि देकर इनका सम्मान कियो ।
१. आलमगीरनामा, पृ० ८५५ । २. आलमगीरनामा, पृ० ८६५ । ३. आलमगीरनामा, पृ० ८६७-८६८। ४. आलमगीरनामा, पृ० ८८८। ख्यातों में इनका आषाढ वदि १० ( २६ मई ) को
दिल्ली पहुँचना लिखा है । ५. इस अवसर पर महाराज ने भी १,००० अशर्फियाँ और १,००० रुपये बादशाह को भेट किए थे।
आलमगीरनामा, पृ० ८८४ । आलमगीरनामे में लिखा है कि बादशाह ने अपने ४६वें वर्ष के प्रारंभ के 'जश्नेवज़ने कमरी' के उत्सव पर ( १७ शव्वाल, मंगलवार को) महाराज को खिलात, पहुँची और जड़ाऊ धुगधुगी उपहार में दी ( देखो पृ० ८८४)। उस रोज़ शायद वि० सं० १७२२ की जेष्ठ वदि ४ (ई० सन् १६६५ की २३ अप्रैल) आती है।
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