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राजा गजसिंहजी वि० सं० १६८२ ( ई० सन् १६२५) में नूरजहाँ बेगम महाबतखाँ से नाराज़ हो गई । इसी से उसने बादशाह से कह कर उसे दक्षिण से बंगाल की तरफ़ चले जाने या दरबार में हाज़िर होने की आज्ञा भिजवा दी । इस पर वह दक्षिण में उपस्थित अधिकांश सरदारों को साथ लेकर बंगाल की तरफ़ जाने का प्रयत्न करने लगा । परन्तु महाराज ने उनमें से बहुतों को बादशाह की आज्ञा का मर्म समझा कर वहीं रोकलियां । इससे दक्षिण का जीता हुआ प्रदेश शत्रुओं के हाथों में जाने से बच गया ।
वि० सं० १६८४ की कार्तिक बदी ३० ( ई० सन् १६२७ की २६ अक्टोबर) को बादशाह जहाँगीर का स्वर्गवास हो गया, और आपस की फूट के कारण बादशाहत का प्रबंध शिथिल पड़ गया। यह देख दक्षिण का सूबेदार खाँजहाँ लोदी बालाघाट का प्रांत निज़ामुलमुल्क को सौंप कर माँडू पर अधिकार करने के लिये रवाना हुआ । राजा गजसिंहजी और जयपुर के मिरजा राजा जयसिंह जी भी ( दक्षिण से ) उसके
भीम नियत हुआ और शाही रेना के अग्रभाग में शाहज़ादे परवेज़ और महाबतखाँ की सलाह से राजा गजसिंह जी रक्खे गए। उस समय बादशाही रे ना में आँबेर के राजा जयसिंहजी, बीकानेर नरेश सूरजसिंहजी, बुंदेला वरसिंहदेव, सारंगदेव, बहले.लखाँ, आलमखाँ, आदि अनेक सरदार थे । अन्तिम युद्ध में सीसोदिया भीम और राजा गजसिंहजी का सामना हुआ । परन्तु भीम के मारे जाते ही खुर्रम और उसकी सेना मैदान छोड़ कर भाग खड़े हुए।
यह युद्ध वि० सं० १६८१ की कार्तिक सुदि १५ को हुआ था। (देखो पृ० ६७-१३४)। ( यहाँ पर कवि ने अनेक घटनाओं को एक में मिला कर बड़ी गड़बड़ करदी है)। ख्यातों में लिखा है कि खरम से आसेर का किला छीनने में भी राजा गजसिंहजी ने बड़ी
वीरता दिखलाई थी। १. बादशाह उसको शाहज़ादे परवेज़ से दूर करना चाहता था। इसीसे उसे वहाँ से हटाना
आवश्यक था । महाराज के समझाने पर भी करीब ५,००० राजपूत सैनिक उसके साथ होलिए । इन्हीं की सहायता से उसने कुछ दिन बाद बंगाल से लौटने पर बादशाह जहाँगीर को, जो उस समय झेलम पार कर काबुल जाने के लिये उद्यत था, पकड़ कर कुछ दिन के लिये अपनी कैद में ले लिया । यह घटना वि० सं० १६८३ (ई० सन्
१६२६) की है। २. 'तुजक जहाँगीरो', पृ० ४३४, । उक्त इतिहास में उस रोज़ 'एक शंवा रविवार का होना
लिखा है । परन्तु इण्डियन एफ़ेमेरिस के अनुसार उस दिन सोमवार आता है । (देखो भा० ६, पृ० ५७)।
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