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मारवाड़ का इतिहास
इसी के अनुसार जिस समय वि० सं० १७०२ की मँगसिर वदि १ ( ई० स० १६४५ की २५ अक्टोबर ) को बादशाह लौटकर लाहौर आया, उससे करीब २ या १३ मास पूर्व यह भी वहाँ जा पहुँचे ।
वि० सं० १७०३ की वैशाख सुदि ५ ( ई० स० १६४६ की १० अप्रैल ) को जब बादशाह का डेरा चनाब के पास हुआ, तब उसने महाराज को जड़ाऊ जमधर, फूलकटार और सुनहरी जीन सहित अरबी घोड़ा देकर इनका सत्कार किये। । तथा ज्येष्ठ सुदि १० (१४ मई) को महाराज के मनसब के दो हजार सवार दुस्पा सेअस्पा कर दिए । इसके दूसरे ही दिन बादशाह के इच्छानुसार महाराज पेशावर से रवाना होकरें शाही लश्कर से एक पड़ाव मागे हो लिए । इस प्रकार जब बादशाह सकुशल काबुल पहुँच गया, तब उसने भादों वदि २ (१८ अगस्त) को इन्हें सुनहरी ज़ीन का ( खासा तबेले का ) एक घोड़ा सवारी के लिये दिया और माघ वदि ११ ( ई० स० १६४७ की २१ जनवरी) को इनके मनसब के ढाई हजार सवार दुपा
१. बादशाहनामा, जिल्द २, पृ० ४७१ |
वि० सं० १७०१ ( ई० सन् १६४४ ) में महाराज ने ख्वाजा फरासत को, जिसे राजा गजसिंहजी ने राजा बहादुर से ख़रीदा था, जोधपुर के प्रबंध की देख भाल के लिये भेजा । परन्तु उसके इस कार्य में सफल न हो सकने के कारण वि० सं० १७०४ ( ई० सन् १६४७ ) में राज्य का प्रबंध उससे ले लिया गया । मृत्यु के उपरांत जहाँ पर वह गाड़ा गया था, वह स्थान, जोधपुर नगर के चाँदपोल दरवाज़े के बाहर, 'मियां के बाग़' के नाम से प्रसिद्ध है । वीरविनोद में लिखा है कि वि० सं० १७०२ ( हि० सन् १०५५ ई० सन् १६४५ ) में महाराज के मनसब में १,००० सवार बढ़ाए गए थे। संभवतः इससे इनके मनसब के १,००० सवारों का दुस्पा से स्पा किए जाने का तात्पर्य ही होगा ।
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२. बादशाहनामा, जिल्द २, पृ० ५०१ ।
३. वीरविनोद में वि० सं० १७०४ ( ई० सन् १६४७ = हि० सन् १०५७ ) में महाराज के मनसब का ७,००० सवारों का होना लिखा है । परन्तु मूल में उद्धृत किया हुआ वृत्तान्त बादशाहनामे ( की जिल्द २, पृ० ५०५ ) से लिया गया है ।
४. इस अवसर पर आंबेर के महाराज - कुमार रामसिंहजी भी इनके साथ भेजे गए थे 1
बादशाहनामा, भाग २, पृ० ५०६ ।
५. आषाढ़ वदि ६ (२८ मई ) को महाराज, जो पहले ही काबुल पहुँच गए थे, वहाँ पर बादशाह से मिले | बादशाहनामा, जिल्द २, पृ० ५०६ और ५७८ ।
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