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महाराजा जसवंतसिंहजी (प्रथम) सेअस्पा कर दिएँ । इसके बाद वि० सं० १७०४ ( ई० स० १६४७ ) में इनके मनसब के ३,००० सवार दुअस्पा सेअस्पा हो गएं । ख्यातों से ज्ञात होता है कि इसके साथ ही इन्हें खर्च के लिये हिंदोन का परगना जागीर में मिला।
वि० सं० १७०५ ( ई० स० १६४८ ) में महाराज का मनसब ५,००० जात और ५,००० सवार दुअस्पा-सेअस्पा का कर दिया गया ।
इसके बाद जब अगले वर्ष कज़लबाशों ( ईरानियों) के आक्रमण की सूचना पाकर बादशाह ने शाहजादे औरंगजेब को कंधार की तरफ रवाना किया, तब महाराज भी उसकी सहायता के लिये साथ भेजे गए । परन्तु मार्ग में काबुल पहुँचने पर औरंगजेब को बादशाह की आज्ञा से वहीं रुक जाना पड़ा । इससे यह भी वहीं ठहर गए। इसके बाद कुछ ही दिनों में जब बादशाह स्वयं वहाँ पहुँचा, तब इन्होंने दो हजार सवारों के साथ आगे जाकर उसकी अभ्यर्थना की।
इसी वर्ष ( वि० सं० १७०६ ) के कार्तिक में जिस समय जयसलमेर रावल मनोहरदासजी का स्वर्गवास हो गया, उस समय उनका पुत्र रामचन्द्र वहाँ की गद्दी पर बैठा । परन्तु वहां के सरदार उससे नाराज़ थे । इस पर स्वर्गवासी रावल मालदेव के पुत्र सबलसिंह ने जो पहले से ही शाहजहाँ के पास रहता था, उससे सहायता माँगी । बादशाह ने महाराज से उसकी सहायता करने का आग्रह किया। साथ ही सबलसिंह
१. बादशाहनामा, जिल्द २, पृ० ६२७ ।
वि० सं० १७०३ की चैत्र वदि ७ (ई० सन् १६४७ की १७ मार्च ) के महाराज के लाहौर से लिखे फरासत के नामके पत्र से उस समय भी इनका लाहौर में होना प्रकट होता है । २. यह शाहजहाँ के २१वें राज्य वर्ष की घटना है; जो वि० सं० १७०४ की आषाढ़ सुदि २ (ई० सन् १६४७ की २४ जून) से प्रारंभ हुआ था।
मासिरुलउमरा, भा० ३, पृ० ५६६ । ३. ख्यातों से यह भी ज्ञात होता है कि यह परगना ६ वर्ष तक महाराज के अधिकार
में रहा था। ४. 'मासिरुल उमरा', भा० ३, पृ० ५६६-६०० । यह घटना शाहजहाँ के २१वे राज्यवर्ष
के अंतिम समय की है। ५. यह घटना शाहजहाँ के २२वें राज्यवर्ष की है, जो वि० सं० १७०५ की आषाढ़ सुदि ३ (ई० सन् १६४८ की १३ जून) को प्रारंभ हुआ था।
मासित ० ३. पृ०६००।
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