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महाराजा जसवंतसिंहजी (प्रथम) जाकर उनके १५ गांव जला दिए और बागियों के मुखियाओं को मारकर मेरों के उपद्रव को शांत कर दिया।
इसी साल रादधड़े के महेचा राठोड़ महेशदास ने बगावत का झंडा उठाया । इस पर मुहणोत जयमल राजकीय सेना को लेकर वहाँ जा पहुँचा और महेशदास को भगाकर रादधड़े को लूट लिया। इससे कुछ दिन बाद ही महाराज ने उक्त प्रदेश (महेवे के रावल तेजसी के पुत्र ) जगमाल को जागीर में दे दिया । इसके बाद जब बादशाह शाहजहाँ ज़ियारत के लिये अजमेर अाया, तब यह भी मँगसिर सुदि र (१० दिसंबर) को यहाँ पहुँच उससे मिले और सात दिन के बाद जिस समय वह अकबराबाद (आगरे) की तरफ़ रवाना हुआ, उस समय लौटकर जोधपुर चले पाए । विदाई के समय बादशाह ने खिलअत देकर इनका सम्मान किया । इसके बाद कई दिनों तक तो महाराज अपनी राजधानी में रहकर राज्य-कार्य की देखभाल करते रहे, परन्तु फिर बादशाह के बुलाने पर रूपावास के डेरे पर पहुँच उससे मिले।
वि० सं० १७०१ की माघ सुदि २ (ई० स० १६४५ की १६ जनवरी ) को जब बादशाह लाहौर की तरफ़ रवाना हुआ, तब उसने इन्हें खिलअत देकर इनका सम्मान किया और साथ ही अकबराबाद के सूबेदार शेख फरीद के आने तक आगरे की देखभाल करते रहने और बाद में अपने पास चले आने का आग्रह किया । इसके अनुसार यह उसके साथ न जाकर वहीं ठहर गएँ । इसके बाद जब बादशाह लाहौर से काश्मीर को रवाना हुआ, तब उसने इन्हें अपने काश्मीर से लौट आने तक अवश्य ही लाहौर पहुँच जाने का लिखा।
१. बादशाहनामा, जिल्द २, पृ० ३४६ । २. परन्तु वि० सं० १७०१ की पौष सुदि २ (ई० सन् १६४४ की २१ दिसम्बर ) के
महाराज के लाहौर से लिखे फरासत के नाम के पत्र से उस समय महाराज का लाहौर
में होना प्रकट होता है । यह विचारणीय है। ३. बादशाहनामा, जिल्द २, पृ० ४०७ । ४. ख्यातों में लिखा है कि इन्हीं दिनों फिर मेरों के मुखिया ( रावत ) ने सोजत में उपद्रव
शुरू किया। इस पर महाराज के दीवान मुहणोत नैणसी ने चढ़ाई कर उसे मार भगाया। इस मुहणोत नैणसी ने दो इतिहास तैयार किए थे। पहला आजकल 'मुहणोत नैणसी की ख्यात' के नाम से प्रसिद्ध है । उसमें इसने इधर-उधर से एकत्रित कर राठोड़, सीसोदिया, चौहान आदि अनेक राजपूत-वंशों का इतिहास लिखा है और दूसरे में मारवाड़ के गाँवों
की उस समय की जमाबंदी, आबादी, लगान आदि का हाल दिया है। ५. बादशाहनामा, जिल्द २, पृ० ४२५ । यह आज्ञा आषाढ़ सुदि ८ (२१ जून ) को
दी गई थी।
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