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राव चन्द्रसेनजी में राठोड़ों की संख्या अल्प से अल्पतर हो गई और किले पर शाही सेना का अधिकार हो गया। इसके बाद शाहबाज़खाँ ने आगे बढ़ सिवाने के किले पर घेरा डाला और बादशाह की आज्ञानुसार पहलेवाली शाही सेना को वहाँ से वापस लौटा दिया । जब कुछ दिनों के परिश्रम से यह प्रकट हो गया कि सम्मुख रण में प्रवृत्त होकर वीर राठोड़ों से किला छुड़वा लेना असंभव है, तब उसने अनेक तरह के छल कपट कर किलेवालों को तंग करना शुरू किया और जहाँ तक हो सका, बाहर से रसद आदि का आना भी एकदम बंद कर दिया । इस पर जब सिवाय किला खाली कर देने के अन्य कोई उपाय न रहा, तब किले के रक्षक ने यह प्रस्ताव यवन-सेनापति के पास भेज दिया। उसने भी इसमें अधिक गड़बड़ करने से हानि समझ शीघ्र ही इसे स्वीकार कर लिया । इस प्रकार वि० सं० १६३३ (हि० सन् १८४) में अनेक कठिनाइयों के बाद यह किला अकबर के अधिकार में आया । किले के बचे हुए राठोड़ चन्द्रसेनजी के पास पीपलोद के पहाड़ों में चले गए और वहीं से मौका पाकर समय-समय पर मुगलसेना को तंग करने लगे।
राव चन्द्रसेनजी को इस प्रकार अकबर के साथ युद्ध में उलझा हुआ देख इसी वर्ष के कार्तिक (ई० सन् १५७६ के अक्टोबर ) में जैसलमेर के रावल हरराजजी ने पौकरण पर चढ़ाई कर दी। उस समय वहाँ पर चन्द्रसेनजी की तरफ़ से पंचोली (कायस्थ ) आनन्दराम किलेदार था । अतः उसने किले में बैठकर चार मास तक बराबर रावलजी का सामना किया। परन्तु जब दोनों तरफ़ विजय की आशा नहीं दिखाई दी, तब व्यर्थ का नर-संहार अनुचित समझ दोनों पक्षों ने इस शर्त पर संधि करना निश्चित किया कि पौकरण तो रावलजी को सौंप दिया जाय और वह इसके एवज़ में १,००,००० फदिए (करीब १२,५०० रुपये ) राव चन्द्रसेनजी को कर्ज के तौर पर दें । परन्तु जिस समय रावजी यह द्रव्य उन्हें लौटा दें, उस समय रावलजी पौकरन उनको सौंप दें । इसके बाद युद्ध स्थगित कर दिया गया और ये शर्ते राव चन्द्रसेनजी की सम्मति के लिये इनके पास भेज दी गई । उस समय रावजी सम्राट अकबर जैसे शत्रु से उलझे हुए थे और इसी से इनको द्रव्य की बड़ी आवश्यकता थी । इसलिये इन्होंने ये प्रस्ताव मान लिए और इनके अनुसार शीघ्र ही संघि हो गई।
जब पीपलोद के पहाड़ों में भी शाही सेना ने चन्द्रसेनजी का पीछा न छोड़ा, तब कुछ दिन तक तो यह सयम-समय पर उससे युद्ध करते रहे । परन्तु इसके बाद
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