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राव चन्द्रसेन और महाराणा प्रताप पर एक तुलनात्मक दृष्टि उसी इतिहास में राव चन्द्रसेनजी की बाबत लिखा है:
"सन् १८२ हिजरी में जब बादशाह अकबर अजमेर आया, तो सिवाने से अकेले राव रायसिंह ने आकर अर्ज की कि राव मालदेव के लड़के चन्द्रसेन ने जोधपुर की हद में निहायत सर उठा रक्खा है और जो लश्कर सिवाने को घेरे हुए है, वह उसको दफा नहीं कर सकता । अगर और बहादुर फौज भेजी जाय तो काम बन सकता है । बादशाह ने मेहरबानी फरमा कर यह अर्ज क़बूल की और तैयबखाँ, सैयदबेग तोकबाई, तुर्क सुभानकुली, खुर्रम, अजमतखाँ और शिवदास को, मय चंद बहादुरों के साथ करके इस ख़िदमत पर भेजा। चन्द्रसेन रामपुरे की हद में होता हुआ पहाड़ों में घुस गया । शाही फौज पहाड़ों की तरफ़ चली । कितने ही ताबे और कितने ही तबाह हो गए । चन्द्रसेन मुक़ाबला न कर सका । बादशाही अमीर उसके पहाड़ों में घुस जाने को नासमझी से लड़ाई की जीत ख़याल करके वापस लौट गए । बादशाह ने जब यह सुना तो नाराज़ हुआ ।"
अबुलफ़ज़ल के उपर्युक्त दोनों लेख समान घटनाओं के द्योतक ही प्रतीत होते हैं । मुन्तख़बुत्तवारीख में लिखो है:
"लेकिन राना का पीछा नहीं किया और वह ज़िन्दा निकल गया । यह बादशाह को बुरा मालूम हुआ।" यह घटना राव चन्द्रसेनजी के साथ की घटना से और भी मिलती जुलती है ।
विशेष घटनाएँ एक बार अपने कुटुम्ब की तकलीफ़ को देख महाराणा प्रताप का जी भर आया और उनके चित्त में शाही अधीनता स्वीकार करने का विचार उत्पन्न होने लगा । जब अकबर द्वारा इसकी सूचना बीकानेर-नरेश रायसिंहजी के छोटे भ्राता पृथ्वीराजजी को मिली, तब उन्होंने महाराणा को लिखाः
पटकूँ मूंछाँ पाण, के पट] निज तन करद ; दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक ।
१. अकबरनामा, भा० ३, पृ० ११०-१११ २. मुन्तख़बुत्तवारीख, भा॰ २, पृ० २३५
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