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राजा उदयसिंहजी उधर चले गए। विक्रम संवत् १६५२. की आषाढ़ सुदी १२ ( ई० सन् १५१५ की ८ जुलाई ) को वहीं पर दमे की बीमारी से इनका स्वर्गवास होगया । इसके बाद जिस समय रावी के किनारे इनका दाहकर्म किया गया, उस समय स्वयं बादशाह अकबर ने नाव-द्वारा वहाँ आकर राजकुमार शूरसिंहजी के साथ समवेदना प्रकट की |
मारवाड़ के नरेशों में पहले पहल इन्होंने ही बादशाही 'मनसब' अंगीकार किया था । एक तो उस समय राजस्थान की परिस्थिति ही ऐसी हो रही थी कि आंबेर
और बीकानेर आदि के नरेश अकबर जैसे प्रतापी बादशाह का दिया 'मनसब' स्वीकार कर या उसकी कृपादृष्टि प्राप्त कर अपने को सुरक्षित और बलवान् समझने लगे थे । दूसरा स्वयं राजा उदयसिंहजी के सामने ही मारवाड़ का राज्य उनके छोटे भाई को दे दिया गया था और घटना-विशेष से राव मालदेवजी के हुमायूँ को सहायता न दे सकने के कारण उस (मारवाड़-राज्य ) पर बादशाह अकबर का अधिकार हो चुका था। इन परिस्थितियों में पड़ कर ही उदयसिंहजी को बादशाही सहारा लेना पड़ा। नहीं कह सकते कि इस प्रकार की परिस्थिति के अभाव में उदयसिंहजी अपनी वंश-क्रमागत स्वाधीनता को छोड़ने को उद्यत होते या नहीं। इससे मिलती हुई परिस्थिति में पड़कर ही मेवाड़ के प्रसिद्ध महाराना प्रतापसिंहजी के भाई जगमल को भी अकबर की शरण लेनी पड़ी थी। परन्तु उस (जगमाल ) के शीघ्र ही विक्रम संवत् १६४० (ई० सन् १५८३ ) में मर जाने से वह सफल न हो सका । जिस समय उदयसिंहजी को राजा की पदवी और मारवाड़ का अधिकार प्राप्त हुआ था, उसी समय शायद इन्हें डेढ़हजारी मनसब भी मिला था।
१. अकबरनामा, दफतर ३ पृ० ६६२ । वि० सं० १६५१ (चैत्रादि सं० १६५२) की
प्रथम जेठ सुदी १ (ई. सन् १५६५ की ३० अप्रेल ) को जिस समय महाराज लाहौर में थे, उस समय इन्होंने काजी सैयद फ़ीरोज को जोधपुर का काज़ी नियत कर एक
सनद कर दी थी । उसमें भी इनकी उपाधि 'महाराजाधिराज महाराजा' लिखी है। २. कहीं कहीं इस घटना की तिथि आषाढ़ सुदी १५ ( ११ जुलाई ) भी लिखी मिलती है । ३. 'अकबरनामे' में लिखा है कि मोटा राजा हि• सन् १.०३ की ३० तीर को मर गया।
इसपर उसके साथ ४ रानियां सती हुई ( देखो दफ़तर ३, पृ० ६६६ )। ४. 'तबकाते अकबरी' में इनका 'मनसब' डेढ़हज़ारी दिया है ( देखो पृ० ३८६)। परन्तु
'मासिरे आलमगीरी' में इनका 'मनसब' एकहज़ारी ही लिखा है ( देखो भा० २, पृ० १८१)।
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