________________
मारवाड़ का इतिहास
इन्होंने मारवाड़ का अधिकार प्राप्त होने पर अनेक गांव दान दिये थे । इनके १६ पुत्र थे । १ भगवानदास, २ नरहरदास, ३ कीर्तिसिंह, ४ दलपत,
१. बेराई ( शेरगढ़ परगने का ), २ खुडाला ( नागोर परगने का ), ३ रामासणी ( सोजत परगने का ), ४ मोतीसरा ( जालोर परगने का ), ५ नगवाड़ा - खुर्द ( परबतसर परगने का ), ६ खाटावास, ७ तांबड़िया खुर्द ८ त्रासणी - चारणां ६ पीथासणी १० मीडोली - चारणां ( जोधपुर परगने के ), ११ जोधावास ( जैतारण परगने का ) चारणों को; १२ सारण ( सोजत परगने का ) स्वामियों को; १३ कानावासिया (बलाड़ा परगने का ) रणछोड़जी के मन्दिर को; १४ बांजडा ( बीलाड़ा परगने का ) भाटों को; १५ मोडी-सूतडां १६ बासणी - भाटियां ( जोधपुर परगने के ), १७ तालकिया ( जैतारण परगने का ) पुरोहितों को और १८ मोडी - जोशियां ( जोधपुर परगने का ) ब्राह्मणों को ।
१६१४ की आश्विन वदि १४ को हुआ था । १६१४ की कार्तिक वदि २ को हुआ था । १६२४ की पौष सुदि १४ को हुआ था ।
२. इसका जन्म वि० सं० ३. इसका जन्म वि० सं० ४. इसका जन्म वि० सं० ५. दलपत का जन्म वि० सं० १६२५ की सावन वदि ६ को हुआ था। इस को राजा उदयसिंहजी ने जालोर का प्रांत जागीर में दिया था । इसके पुत्र महेशदास ( जन्म वि० सं० १६५३ की माघ वदि ३ ) की वीरता से प्रसन्न होकर बादशाह शाहजहाँ ने उसे अपना मनसबदार बनाया था। इसी के साथ इसे एक बड़ी जागीर इसके ८४ गाँव तो फूलिया के परगने में और ३२५ गांव जहाज़पुर के 'बादशाहनामे' ( के भा० २ के पृ० ५५४ ) में लिखा है कि बलख़ करने पर, वि० सं० १७०३ ( ई० सन् १६४६ ) में, बादशाह ने इसका मनसब बढ़ाकर ३,००० जात और २,५०० सवारों का कर दिया था । उसी इतिहास ( के भा० २, पृ० ६३५ ) में लिखा है कि वि० सं० १७०४ ( ई० स० १६४७ ) में राठोड़ दलपत का पुत्र और शूरसिंहजी का भतीजा मर गया । यह बड़ा विश्वासपात्र, अनुभवी योद्धा और कुशल व्यक्ति था । बादशाह को इससे बहुत शोक हुआ और उसने कहा कि ऐसे व्यक्ति का सम्मुख रण में शत्रुओं को मारकर वीरगति प्राप्त करना ही अधिक उचित होता ।
भी दी गई थी । परगने में थे ।
बादशाह को इस पर इतना भरोसा था कि दरबार १० गज़ के फासले पर रक्खी हुई उस चन्दन की बनी बादशाह की तलवार और तीर-कमान रक्खे रहते थे । बादशाह से १० गज़ के फासले पर चलता था ।
युद्ध
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
में विजय प्राप्त
महेशदास के मरने पर बादशाह ने उसके ज्येष्ठ पुत्र रत्न सिंहजी ( जन्म वि० सं० १६७५ की चैत्र वदि ३० ) का मनसब बढ़ाकर १,५०० जात और १,५०० सवारों का कर दिया। उस समय भी जालोर उनकी जागीर में रहा ।
१७८
के समय वह शाही तख्त के पीछे केवल चौकी के पास खड़ा रहता था, जिस पर इसी प्रकार शाही सवारी के समय भी वह
कहते हैं महेशदास अपने द्वितीय पुत्र कल्याणदास को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था । इसकी सूचना मिलने पर रत्नसिंहजी नाराज़ होकर बादशाह की सहायता प्राप्त करने के लिये दिल्ली
www.umaragyanbhandar.com