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राजा उदयसिंहजी ५ भोपतसिंह, ६ शूरसिंह, ७ माधवसिंह, ८ कृष्णसिंह, चले गए। इसके बाद एक रोज़ एक मस्त हाथी शाही दरबार की तरफ़ चला आया । यह देख इन्हों ने तत्काल अपनी कटार खींच ली और उससे उस मस्त हाथी के मस्तक पर इस ज़ोर से वार किया कि वह मार्ग छोड़ चिंघाड़ता हुआ जिधर से आया था उधर ही को भाग चला।
इनकी इस फुर्ती और, पराक्रम को देख बादशाह शाहजहां मुग्ध हो गया, और उसने उसी समय इन्हें अपना कृपापात्र बना लिया । यह समाचार सुन इनके पिता को भी अपना विचार बदल इन्हीं को अपना उत्तराधिकारी मानना पड़ा।
___ इसके बाद रत्नसिंहजी ने शाही सेना के साथ रह कर बलख आदि में अच्छी वीरता दिखलाई । इससे प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें मालवे में एक बड़ी जागीर दी । वहीं पर इन्होंने बाद में अपने रतलाम-राज्य की स्थापना की । इनके पौत्र केशवदासजी के समय वि० सं० १७५२ (ई० स० १६६५) में बादशाही अमीने जज़िया के रतलाम-राज्य में मारे जाने के कारण बादशाह औरङ्गजेब उनसे नाराज़ हो गया। इसीसे उसने उनसे रतलाम का राज्य ज़ब्त कर शाहज़ादे आज़म को जागीर में दे दिया। परन्तु कुछ काल बाद वहां का अधिकार शाहज़ादे से वापिस लिया जाकर केशवदास के चचा छत्रसालजी को दे दिया गया। अन्त में केशवदासजी के निर्दोष सिद्ध होने और शाही सेना के साथ रह कर युद्धों में वीरता दिखलाने के कारण औरङ्गजेब इनसे फिर प्रसन्न हो गया, और उसने वि० सं० १७५८ (ई० स० १७०१) में इन्हें तीतरोद का प्रान्त जागीर में दिया । इसके बाद वहीं पर इन्होंने अपने सीतामऊ के नवीन राज्य की स्थापना की ।
उपर्युक्त (रतलाम नरेश) छत्रसालजी के पौत्र मानसिंहजी के छोटे भ्राता जयसिंहजी ने वि० सं० १७८७ (ई० स० १७३० ) में अपनी जागीर रावटी में अपना स्वतन्त्र राज्य कायम किया। इसके बाद वि० सं० १७६३ (ई० स० १७३६ ) में उन्हीं जयसिंहजी ने नवीन राजधानी सैलाना की भी स्थापना की ।
१. इसका जन्म वि० सं० १६२५ की कार्तिक सुदि ६ को हुआ था। २. माधवसिंह का जन्म वि० सं० १६३८ की कार्तिक वदि ५ को हुआ था। इसके वंशज
पिशांगण और जूनिया (अजमेर प्रान्त ) में हैं । पिशांगण के शासक नाथूसिंह ने मारवाड़ नरेश महाराजा मानसिंहजी के उदयपुर की राजकुमारी कृष्णकुमारी के साथ के विवाह के मामले में बहुत कुछ उद्योग किया था। इसी से प्रसन्न होकर महाराज मानसिंहजी ने, वि० सं० १८६३ (ई० स० १८०६) में, उसे राजा की पदवी दी । वि० सं० १६३४ (ई० स० १८७७) में भारत सरकार ने भी उसे नाथूसिंह के वंशज प्रतापसिंह के लिये व्यक्तिगतरूप से स्वीकार कर लिया था । (देखो-चीफ्स एण्ड लीडिंग फेमिलीज़ इन
राजपूताना (ई० स० १६१६ में प्रकाशित ) पृ० १०१)। ३. कृष्णसिंहजी का जन्म वि० सं० १६३६ की जेठ वदि २ को हुआ था और अपने पिता
के मरने पर यह शाहज़ादे सलीम के पास चले गए थे। अकबर के मरने पर जब शाहज़ादा (१) बारहट कुम्भकर्ण रचित 'रतनरासा' से भी इसकी पुष्टि होती है।
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