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सवाई राजा शूरसिंहजी आज्ञा से राजकुमार गजसिंहजी में अपनी सेना के साथ पहुँच एकाएक वहाँ के किले पर चढ़ाई करदी । कुछ समय तक तो दोनों पक्षों के बीच भीषण संग्राम होता रहा, परन्तु अन्त में वहाँ के नारायणदास काबा की सहायता से यह एक टूटे हुए बुर्ज की तरफ से किले में घुस गए । राठोड़-सेना को इस प्रकार एकाएक किले में घुसी देख शत्रुओं ने शस्त्र रख दिए । इससे किले पर राजकुमार का अधिकार हो गया । दूसरे दिन वहाँ के बिहारी पठानों ने एकत्रित होकर फिर शहर के द्वार पर राठोड़सेना का बड़ी वीरता से सामना किया । परन्तु (डोडियाली के ठाकुर ) पूँजा और कीरतसिंह देवड़ा आदि के विहारियों को मदद देने से इनकार कर देने के कारण वे सारे के सारे पठान युद्ध में मारे गए । इस प्रकार जब जालोर पर राजकुमार गजसिंहजी का अधिकार हो गया, तब वहाँ के शासक पहाड़खाँ का दीवान मेहता मोकलसी बची हुई बिहारियों की सेना को लेकर भीनमाल की तरफ़ चला गया । परन्तु राठोड़ों ने उसका पीछा न छोड़ा और उसके भीनमाल पहुँचते ही तत्काल उस नगर को चारों तरफ से घेर लिया । वहाँ के युद्ध में शत्रुओं की तरफ के मोकलसी आदि कुछ मुख्य पुरुष मारे गए और बचे हुए पठान भागकर वि० सं० १६७५ ( ई० सन् १६१८) में ( पालनपुर इलाके के ) कुरमाँ गाँव में चले गए । परन्तु इसके बाद भी वे मौका पाते ही, अर्वली पर्वत की सैंधा आदि की घाटियों का आश्रय लेकर, जालोर के आस-पास लूट-मार करने में नहीं चूकते थे। जो उस समय गुजरात वालों का अधिकार होना लिखा है, यह ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि गुजरात उस समय मुग़लों के ही अधिकार में होने से वहां का कोई स्वतंत्र बादशाह नहीं था। इसी प्रकार की और भी अनेक बातें कर्नल टॉड के राजस्थान में लिखी मिलती हैं; जो फारसी तवारीखों आदि से सिद्ध नहीं होती। हमारी समझ में बादशाह ने शूरसिंहजी के दक्षिण जाने के पूर्व जिस समय उनके सवारों में ३०० की वृद्धि की थी, उसी समय शायद जालोर भी उनके मनसब में दे दिया होगा। १. 'गुणरूपक', पृ० १६-२६ । उक्त काव्य में इस विजय का भादों में होना लिखा है।
उसमें यह भी लिखा है कि इस घटना के बाद गजसिंहजी ने उग्रसन के पुत्र कर्मसेन पर चढ़ाई की । इसकी सूचना पाते ही वह लाडण से भागकर पहले तो थली (निर्जल-स्थल) की तरफ गया और फिर वहां से बला पहाड़ की तरफ चला गया । महाराज-कुमार गजसिंहजी भी उसके पीछे लगे हुए थे। इससे शीघ्र ही उन्होंने सोजत पहुँच विजयादशमी के दिन फिर कर्मसेन पर चढ़ाई की । यह देख वह मेरों की शरण में चला गया। परंतु जब गजसिंहजी ने मेरों को दण्ड देना शुरू किया, तब उस ( कर्मसन ) को भागकर
हाडोती में घुस जाना पड़ा । ( देखो पृ० ३०-३१)। २. 'तारीखे पालनपुर', जिल्द १, पृ० १०१-१०६ ।
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