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सवाई राजा शूरसिंहजी बादशाह ने अपने चौथे राज्य-वर्ष में इनका मनसब बढ़ा कर चार हज़ारी जात और दो हजार सवारों का कर दियो । ___इसी वर्ष अबदुल्लाखाँ ने सोजत का परगना महाराज कुमार गजसिंहजी को लौटा दियों और इसकी एवज में उनसे नाडोल के थाने का प्रबंध करने का आग्रह किया ।
१. मासिरुल उमरा, भा॰ २, पृ० १८२ । यह मनसब-वृद्धि जहाँगीर के चौथे राज्य-वर्ष __ (वि० सं० १६६६ ई० स० १६०६) में हुई थी। २. वि० सं० १६६५ (ई• सन् १६०८) में जहाँगीर की आज्ञा से महाबतखाँ ने मेवाड़
पर चढ़ाई की । जिस समय इसका कैंप मोही में था उस समय उसे सूचना मिली कि महाराना अमरसिंहजी का कुटुम्ब सोजत में छिपा हुआ है और राजा शूरसिंहजी के कुछ सरदार उन्हें गुप्तरूप से सहायता देते हैं । इस पर उसने शाही दरबार से आज्ञा प्राप्त कर उक्त प्रांत को महाराज के शासन से निकाल लिया और वहाँ का अधिकार
राव चन्द्रसेनजी के पौत्र ( उग्रसेन के पुत्र ) कर्मसेन को दे दिया । जब इसकी सूचना महाराज को मिली तब इन्होंने अपने मंत्री गोविंददास को महाबतखाँ को समझाने के लिये भेजा । परन्तु उस समय इस कार्य में सफलता नहीं हुई।
इसके बाद महाबतखाँ के मेवाड़ की चढ़ाई में असफल होने के कारण उसके स्थान पर अब्दुल्लाखाँ नियत किया गया । इसने कर्मसेन से सोजत का अधिकार छीन लेना चाहा । इस पर कर्मसेन ने भी अब्दुल्लाखाँ का बड़ी वीरता से सामना किया । परन्तु अन्त में उसके वीर सेनापति सोलंकी कुंभा के मारे जाने और उसका बल क्षीण होजाने से वह (कर्मसेन) सोजत का किला छोड़ कर निकल गया । उपर्युक्त सोलंकी कुंभा की स्त्री के, जो अपने पति के साथ सती हुई थी, हाथ का चिह्न किले के भीतरी दरवाजे पर अब तक विद्यमान है।
इसके बाद ही नाडोल के थाने का प्रबंध करने की शर्त पर सोजत का शासन पीछा मारवाड़ नरेश के अधिकार में दे दिया गया। नाडोल के थाने का समुचित प्रबंध हो जाने से आगरे और गुजरात के बीच के मार्ग की लूट खसोट बंद हो गई ।
'राजपूताने के इतिहास' के भा० ३, पृ० ७६६ के फुटनोट ३ में ओमाजी ने वि० सं० १६६७ के वैशाख ( ई० सन् १६१० के अप्रेल ) में इस घटना का होना मान कर दक्षिण जाते हुए शूरसिंहजी का भाटी गोविंददास को महाबतखाँ के पास भेजना लिखा है । परन्तु एक तो 'तुजुकजहाँगीरी' (पृ० ७४ ) में शूरसिंहजी का वि० सं० १६६५ (ई० सन् १६०८) में खानखानान् के साथ दक्षिण की तरफ जाना लिखा है । दूसरा 'राजपूताने के इतिहास' के ही पृ० ७६५ पर स्वयं ओमाजी ने हि० सन् १०१८ के रबिउल आखिर (वि० सं० १६६६ के श्रावण ई० सन् १६०६ के जून) में महाबतखाँ के स्थान पर अब्दुल्लाखा का नियत किया जाना लिखा है । ऐसी हालत में वि० सं० १६६७ के वैशाख में सोजत पर कर्मसेन का अधिकार होने के कुछ समय बाद शूरसिंहजी का गोविंददास को महाबतखाँ के पास भेजना कैसे संभव हो सकता है । नवलकिशोर प्रेस की छपी 'तुजुकजहाँगीरी' में हि० स० १०१८ की १६ रबिउल अव्वल दोशंबा (वि० सं० १६६६ की
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