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मारवाड़ का इतिहास
अगले वर्ष (वि० सं० १६४४ में ) मोटा-राजा उदयसिंहजी अपने राजकुमार शूरसिंहजी को साथ लेकर लाहौर गए । वहीं पर बादशाह अकबर की इच्छानुसार उन ( युवराज शूरसिंहजी ) का विवाह कछवाहा दुरजनसाल की कन्या से कर दिया गया ।
ख्यातों में लिखा है कि इसी वर्ष बादशाह ने महाराज को सिरोही के राव सरतान को दण्ड देकर देवड़ा हरराज के पुत्र विजा को वहाँ की गद्दी पर बिठा देने की आज्ञा दी । इन्होंने भी इस अवसर पर अपने भतीजे राव रायसिंहजी की मृत्यु का बदला लेने का निश्चय कर तत्काल सिरोही पर चढ़ाई कर दी । परन्तु इनसे सम्मुख रण में लड़ना हानिकारक समझ सुरतान आबू के पहाड़ों में चला गया । इस पर उदयसिंहजी ने इधर-उधर के गांवों को लूट नीतोड़ा नामक गाँव में अपनी छावनी डाल दी । यद्यपि एक महीने तक तो राव सुरतान पहाड़ों में छिपा रह कर इन पर आक्रमण करने का मौका ढूंढ़ता रहा, तथापि अन्त में उसे लाचार हो अपने कुछ सरदारों को, बगड़ी के ठाकुर ( पृथ्वीराज के पुत्र ) वैरमल के मारफ़त, उदयसिंहजी के पास भेज कर बादशाह से क्षमा दिलवाने की प्रार्थना करनी पड़ी । परन्तु महाराज अपने भतीजे रायसिंहजी का सुरतान-द्वारा धोखे से मारा जाना अभी तक नहीं भूले थे। इससे इन्होंने रत्नसिंह के पुत्र राम को आज्ञा देकर सिरोही के उन सरदारों को मरवा डाला । यह बात वैरसल को बुरी लगी । इसी से उसने राम को मार कर स्वयं' मी आत्महत्या कर ली।
इसके बाद स्वयं विजा ने शाही सेनापति जामबेग को साथ लेकर 'वास्थानजी' के मार्ग से सुरतान पर चढ़ाई की । परन्तु युद्ध होने पर विजा मारा गया। इसकी
परन्तु जब राजा उदयसिंहजी का क्रोध इससे भी शान्त न हुआ, तब चारणों ने ग्राउवा गाँव में दो दिन अनशन व्रत करने के बाद तीसरे दिन सूर्योदय के समय अपने-अपने गले में कटार घुसेड़कर आत्महत्या कर ली। इसके बाद आढ़ा दुरसा प्रादि एक-दो चारण जो अपने गले में कटार घुसेड़ लेने पर भी बच गए थे, सिरोही की तरफ
चले गए। इस आत्महत्या के कार्य में कुछ पुरोहितों ने भी, चारणों के साथ समवेदना प्रकट करने के लिये, उनका साथ दिया । साथ ही इस कार्य में चारणों की सहायता करने के कारण चांपावत गोपालदास को भी मारवाड़ छोड़ कर जाना पड़ा।
१. इस पर जो चबूतरा बनाया गया था वह नीतोड़े में अब तक विद्यमान है ।
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