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मारवाड़ का इतिहास
को लिख भेजा । इस पर उसने इन्हें राव का ख़िताब और सोजत का परगना जागीर में देकर मारवाड़ की तरफ़ जाने की अनुमति दे दी । इसलिये वि० सं० १६३६ ( ई० सन् १५८२ ) में यह सोजत पहुँच वहाँ की गद्दी पर बैठे । इसके बाद वि० सं० १६४० ( ई० सन् १५८३ ) में ही यह लौटकर बादशाह के पास चले गए ।
इस घटना के पूर्व ही मेवाड़ के प्रसिद्ध महाराना प्रतापसिंहजी का भाई जगमाल बादशाह अकबर की सेवा स्वीकार कर उसके पास पहुँच चुका था, और कूटनीतिज्ञ अकबर ने उसे सिरोही का आधा राज्य दिलवा दिया था । परन्तु कुछ दिन बाद वहाँ के महाराव सुरतान से अनबन होजाने के कारण वह लौटकर फिर बादशाह के पास पहुँचा । इस पर अकबर ने देवड़ा सुरतान को हटाने और सिरोही का अधिकार जगमाल को दिलवाने के लिये, वि० सं० १६४० ( ई० सन् १५८३ ) में, एक सेना मेजी, और उसके साथ रात्र रायसिंहजी भी नियत किए गए। इससे एक बार तो सिरोही पर फिर से जगमाल का अधिकार हो गया, और सुरतान भागकर बू के पहाड़ों में चला गया । परन्तु कुछ दिन बाद ही जब बहुत सी शाही सेना गुजरात की तरफ़ चली गई, तब सुरतान ने, एक रात को, बची हुई शाही सेना पर अचानक हमला करदिया । उस समय जगमाल और राव रायसिंहजी दोनों दताणी गांव के मुक़ाम पर बेखबर सोए हुए थे, इसलिये जैसे ही इस हल्ले से उनकी निद्रा भंग हुई, वैसे
( ख्यातों में लिखा है कि चौसर खेलते समय दोनों भाइयों के बीच १० सेर मिसरी की शर्त ठहरी थी, और मौके पर उग्रसेनजी ने मिसरी ले आने के बहाने से आसकरनजी के सेवकों को वहाँ से हटा दिया था । परन्तु एक अफ़ीमची वहाँ पर रह गया था । अपने स्वामी का कराहना सुन वह चौंक पड़ा, और उसी ने ग्रासकरनजी की छाती से कटार निकालकर उग्रसेनजी की छाती में घुसेड़ दी । )
वि० सं० १६३७ (८) शक संवत् १५०३ का एक शिला लेख सारन से मिला है। इससे प्रासकरनजी के पीछे उनकी एक रानी का सती होना प्रकट होता है । शिला लेख की प्रतिलिपि:
“श्रीगणेशाय नमः । संवत् १६३७ (८) वर्षे शाके १५०३ (चैत्र) मांसं सु (शु) क्ल पक्षे पडिवा १ राय श्री आसकरणजि (जी) देवलोक पधारा (रि) या तत् समये सती एक हुई ।”
इस लेख का संवत् श्रावण से प्रारंभ होनेवाला मारवाड़ी संवत् है । इससे चैत्रादि संवत् १६३८ आता है । इसकी पुष्टि उसी में के आगे लिखे श० सं० १५०३ से भी होती है; क्योंकि विक्रम और शक संवत् के बीच १३५ का अंतर रहता है ।
आसकरनजी के तीन पुत्र थे — कर्मसेन, कल्याणदास और कान्ह ।
१. तबकाते अकबरी, पृ० ३५५ ।
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