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राव रायसिंहजी २१. राव रायसिंहजी यह मारवाड़-नरेश राव चन्द्रसेनजी के ज्येष्ठ पुत्र थे । इनका जन्म वि० सं० १६१४ की भादों सुदी १३ ( ई० सन् १५५७ की ६ सितम्बर ) को हुआ था। जिस समय इनके पिता की मृत्यु हुई, उस समय यह अकबर की आज्ञा से शाही सेना के साथ काबुल गए हुए थे । परन्तु जब इनके छोटे भ्राता उग्रसेनजी और आसकरनेजी दोनों ही चौसर खेलते हुए मारे गए, और मारवाड़ के सरदारों ने इन्हें देश में आकर अपने पैतृक राज्य को सँभालने के लिये लिखा, तब इन्होंने यह सारा हाल बादशाह १. 'राजपूताने के इतिहास' में इन्हें चन्द्रसेनजी का तीसरा पुत्र लिखा है (पृ० ७३७,
टिप्पणी १)। यही बात 'सिरोही के इतिहास' में भी लिखी है (पृ० २२६)। परन्तु यह ठीक नहीं है।
(२१) राव आसकरनजी और उग्रसेनजी २. ये दोनों भी चन्द्रसेनजी के पुत्र थे। उग्रसेनजी का जन्म वि० सं० १६१६ की भादों
बदी १४ (ई० सन् १५५६ की २ अगस्त) को और आसकरनजी का वि० सं० १६१७ की श्रावण वदी १ (ई० सन् १५६० की ८ जुलाई ) को हुआ था । (परन्तु एक स्थान पर वि० सं० १६२७ की आश्विन सुदी १४ भी लिखी मिलती है ?) जिस समय (वि० सं० १६३७ ई० सन् १५८१ में) राव चन्द्रसेनजी की मृत्यु हुई, उस समय रायसिंहजी काबुल में और उग्रसेनजी बूंदी में थे । इसलिये मारवाड़ के सरदारों ने रावजी के पीछे उनके सबसे छोटे पुत्र प्रासकरनजी को गद्दी पर बिठला दिया । इसकी सूचना मिलने पर उग्रसेनजी बूंदी से मेड़ते चले आए, और मुग़ल सेनापतियों से मिलकर मारवाड़ का अधिकार प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे । यह देख राठोड़ सरदारों ने उन्हें समझाया कि देश की दशा को देखते हुए उस समय गद्दी का खाली रखना हानिकारक था। इसी से हमने आसकरनजी को गद्दी पर बिठा दिया था । यदि ऐसा न किया जाता, तो एकत्रित सरदार मालिक के न रहने से इधर-उधर चले जाते, और सोजत का प्रांत फिर मुग़लों के अधिकार में हो जाता । फिर भी यदि आप आपस के मनोमालिन्य को छोड़कर यहाँ चले आवें, तो सोजत का आधा प्रांत आपको दिया जा सकता है। इस पर
उग्रसेनजी मुसलमानों का साथ छोड़ मेड़ते से सारन (सोजत-प्रांत में ) चले आए।
एक रोज़ जिस समय उग्रसेनजी और आसकरनजी दोनों भाई चौसर खेल रहे थे, उस समय दोनों के बीच हार-जीत के विषय में झगड़ा हो गया। इससे क्रुद्ध होकर उग्रसेनजी ने अपनी कटार आसकरनजी की छाती में घुसेड़ दी । परन्तु राव आसकरनजी के सरदार (शंकर के पुत्र ) शेखा ने, जो वहीं बैठा था, जब अपने स्वामी की यह दशा देखी, तब वही कटार उनकी छाती से निकाल उग्रसेनजी के हृदय में घुसेड़ दी । इस प्रकार दोनों भाई एक ही दिन स्वर्ग को सिधारे । यह घटना वि० सं० १६३८ की चैत्र सुदी १ (ई० सन् १५८१ की ६ मार्च) की है।
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