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राजा उदयसिंहजी उस समय सिंध और थट्टे का मार्ग बीकमपुर ( जैसलमेर-राज्य में ) होकर जाता या । इसलिये मालके आवागमन के कारण भाटियों को अच्छी आमदनी हो जाती थी। यह देखकर उदयसिंहजी ने व्यापारियों के उस मार्ग से आने-जाने में मकावट डालना
और उन्हें फलोदी की तरफ से आने-जाने को बाध्य करना शुरू किया। इससे वि० संवत् १६२६ ( ई० स० १५७२) में भाटियों के और इनके बीच झगड़ा हो गया। इस युद्ध में भाटियों के नायक के मारे जाने के कारण विजय उदयसिंहजी के हाथ रही । इसका बदला लेने के लिये, वि० संवत् १६३१ ( ई० स० १५७४) में, भाटियों ने फलोदी पर एकाएक चढ़ाई कर दी । जैसे ही इसकी सूचना उदयसिंहजी को मिली, वैसे ही यह अपने उपस्थित वीरों को लेकर उनका सामना करने को चले । मार्ग में हम्मीरसर ( कुण्डल के पास ) में पहुँचने पर दोनों का सामना हो गया । यहां के युद्ध में यद्यपि एक बार तो राठोड़ों ने भाटियों को दबा लिया, तथापि अन्त में संख्याधिक्य के कारण खेत भाटियों के ही हाथ रहा ।
वि० संवत् १६३४ ( ई० स० १५७७) में जिस समय बादशाह की तरफ़ से सादिक़खाँ ओड़छा और बुन्देलखंड के शासक मधुकरशाह बुन्देले को दबाने के लिये भेजा गया, उस समय उदयसिंहजी भी उसके साथ गए थे । वहाँ के युद्ध में इन्होंने अच्छी वीरता दिखलाई । खास कर नरवर का किला तो इन्हीं की बहादुरी से विजय हुआ था । इससे कुछ समय बाद ही बादशाह अकबर ने इन्हें राजा की पदवी देकर जोधपुर का अधिकार सौंप देने का वादा भी किया । इनका शरीर स्थूल होने के कारण यह शाही दरबार में 'मोटा राजा' के नाम से प्रसिद्ध थे।
१. 'मासिरुल उमरा' में इस घटना का अकबर के २३ वें राज्य-वर्ष में होना लिखा है
( देखो भा० २, पृ० १८१)। परन्तु अकबरनामे में २२ वां राज्य-वर्ष लिखा है
(देखो भाग ३, पृ. २१०)। २. वि. सं. १६३५ का लिखा हुआ इनका एक 'खास रुक्का' मिला है। इससे प्रकट होता है
कि जोधाजी ने हरा नामक ब्राह्मण के पूर्वजों को कन्नौज से अपनी कुलदेवी की मूर्ति ले आने के कारण जो ताम्रपत्र लिख दिया था, वह उस समय तक विद्यमान था । इस ताम्रपत्र का उल्लेख यथास्थान जोधाजी के इतिहास में किया जा चुका है । यहाँ पर उदयसिंहजी के उक्त पत्र की नकल दी जाती है
"श्री नागणेचियाँ महाराजाधिराज श्री उदेसिंघजी वचनाय सेवग हरो सदावंद कदीम सुं छ, राठोड़ वंसरो सेवगपणो कदीम सुं ईणरै थे, तीणरो हथेरण सांमत १५१६ रो तांबापतर मुजब परवाणो करदीनो
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