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राव चन्द्रसेनजी राव चन्द्रसेनजी का स्वर्गवास संचियाय में हुआ था और सारन में जिस स्थान पर इनकी दाहक्रिया की गई थी, उस जगह इनकी संगमरमर की एक पुतली अब तक विद्यमान है।
राव चन्द्रसेनजी ही अकबर-कालीन-राजस्थान के सर्व प्रथम मनस्वी वीर और स्वतंत्र प्रकृति के नरेश थे और महाराणा प्रताप ने इन्हीं के दिखलाए मार्ग का करीब १० वर्ष बाद अनुसरण किया था । यद्यपि चन्द्रसेनजी ने जोधपुर के-से राज्य को छोड़कर रात-दिन पहाड़ों में घूमना और आयुपर्यन्त यवनवाहिनी से लड़ते रहना अंगीकार कर लिया, तथापि बादशाह की अधीनता नाममात्र को भी स्वीकार नहीं की। अकबरनामे के लेख से भी ज्ञात होता है कि अकबर की प्रबल इच्छा थी कि अन्य नरेशों की तरह राव चन्द्रसेनजी भी, किसी तरह, उसकी अधीनता स्वीकार करलें । इसी से वह इनके विरुद्ध भेजे जाने वाले शाही अमीरों को समझा देता था कि हो सके, तो शाही प्रसन्नता के लाभ समझाकर वे राव को वश में करने की कोशिश करें । परन्तु उसकी यह इच्छा अंत तक किसी प्रकार भी पूर्ण न होसकी ।
कर सारण के पर्वतों में रहने लगे थे, उस समय इधर-उधर के बहुत-से राठोड़ सरदार उनकी सेवा में चले आए थे। परन्तु राठोड़ वैरसल और दूंपावत उदयसिंह ने गर्व के कारण इस तरफ ध्यान नहीं दिया । इस पर रावजी ने वैरसल की जागीर के गाँव दूदोड़ पर चढ़ाई की । परन्तु जिस समय यह मार्ग में ही थे, उस समय राठोड़ (देवीदास के पुत्र) आसकरन ने वैरसल को समझाकर सेवा में ले आने का वादा किया। इससे इधर तो चन्द्रसेनजी ने अपनी चढ़ाई रोक दी और उधर प्रासकरन ने जाकर वैरसल को सब तरह से समझा दिया । परन्तु वैरसल ने यह शर्त पेश की कि यदि रावजी एक बार स्वयं
आकर मेरे स्थान पर भोजन करलें, तो मुझे विश्वास हो जाय और मैं उनकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँ । प्रासकरन की प्रार्थना पर रावजी ने यह बात मान ली और इसके अनुसार एक दिन यह उसके स्थान पर भोजन करने चले गए। परन्तु जैसे ही रावजी वैरसल के यहाँ से भोजन करके लौटे, वैसे ही इनका स्वर्गवास हो गया। इससे अनुमान
होता है कि वैरसल ने विश्वासघात कर रावजी को विष दे दिया होगा। १. यह सारन के पास (सोजत प्रान्त में ) है । २. उक्त पुतली में राव चन्द्रसेनजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा बनी है और उसके आगे ५
स्त्रियाँ खड़ी हैं । इससे प्रकट होता है कि उनके पीछे ५ सतियाँ हुई थीं। यह बात उक्त
पुतली के नीचे खुदे लेख से भी सिद्ध होती है । उसमें लिखा है
"श्रीगणेशाय नमः । संवत् १६३७ शाके १५ [ . ] २ माघ मासे सू (शु)क्लपक्षे सतिव (सप्तमी) दिने राय श्रीचन्द्रसेणजी देवीकुला सती पंच हुई ।”
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