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राव चन्द्रसेन और महाराणा प्रताप पर एक तुलनात्मक दृष्टि राव चन्द्रसेन और महाराणा प्रताप पर एक तुलनात्मक दृष्टि ।
आगे दोनों नरेशों के विषय की कुछ समान घटनाओं का उल्लेख किया जाता है । यद्यपि इनमें से कोई-कोई एक दूसरी से संपूर्णत: नहीं भी मिलती हैं, तथापि उनका एक भाग अवश्य ही आपस में समानता रखता है
१ - वैसे तो मारवाड़ और मेवाड़ के नरेशों से मुसलमान बादशाहों का वैर पहले से ही चला आता था, परन्तु वि० सं० १६२१ ( ई० स० १५६४ ) में राव चन्द्रसेनजी ने व्यक्तिगत रूप से अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इनकार किया था, और वि० सं० १६३० ( ई० स० १५७३ ) में महाराणा प्रताप का जयपुर के कुँअर मानसिंह से विरोध हो जाने से उन पर अकबर के आक्रमण प्रारंभ हुए थे
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वि० सं० १६२८ से १६३७ ( ई० स० १५७१ से १५८० ) तक ये दोनों नरेश अकबर की आंखों के कांटे बने रहे । परंतु इसी वर्ष राव चन्द्रसेनजी का स्वर्गवास हो गया ।
२–उधर महाराणा प्रताप यद्यपि महाराणा उदयसिंहजी द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र थे, तथापि उनके पिता ने उनके छोटे भाई जगमाल को राज्य का उत्तराधिकारी नियत कर दिया था । अतः पिता की मृत्यु के बाद यह भाई के विरुद्ध होकर मेवाड़ की गंदी पर बैठे और इसी से दोनों भाइयों में विरोध हो गया । इस पर जगमाल जहाज़पुर होता हुआ अजमेर के सूबेदार की सलाह से अकबर की सेवा में चला गया और उससे जहाज़पुर का परगना जागीर में पाया । कुछ दिन बाद इनका दूसरा भाई सगर भी इनसे नाराज़ होकर अकबर के पास चला गया । इधर राव चन्द्रसेनजी के पाँच बड़े भाइयों के होते हुए भी इनके पिता ने इन्हीं को राज्याधिकारी चुना और इसी के कारण इनका बड़ा भाई राम इनसे अप्रसन्न होकर हुसेनकुली की सलाह से अकबर के पास चला गया, तथा ख्यातों के अनुसार बादशाह ने उसको सोजत का प्रांत जागीर में दिलवा दिया । वि० सं० १६२७ ( ई० स० १५७० ) में राव चन्द्रसेनजी के दूसरे भाई उदयसिंहजी भी बादशाही पक्ष में चले गए ।
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३ – महाराणा प्रताप के राज्यासन पर बैठते समय जिस प्रकार मेवाड़ के चित्तौड़, मांडलगढ़ आदि प्रदेशों पर यवनों का शासन था, उसी प्रकार राव चन्द्रसेनजी के राज्यारोहण के समय भी मारवाड़ के अजमेर, मेड़ता आदि प्रदेश यवनों के अधिकार में थे ।
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