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मारवाड़ का इतिहास राठोड़-वीर जिस समय सोमेश्वर की नाल (घाटी) के पास पहुँचे, उस समय इनके ६०० योद्धा मारे जा चुके थे । परन्तु फिर भी मेवाड़वालों ने पीछा न छोड़ा । यह देख राठोड़ों ने भी वहाँ की तंग घाटी का आश्रय ले एक बार फिर सीसोदियों की सेना का सामना किया, और उसके बहुसंख्यक योद्धाओं का संहारकर स्वयं भी वीर-गति को प्राप्त हुए।
ख्यातों से प्रकट होता है कि मेवाड़ से चले राठोड़ों के दल में से जोधाजी सहित केवल आठ व्यक्ति ही भिन्न-भिन्न मार्गों से मारवाड़ तक पहुँच सके थे।
इस युद्ध के बाद मेवाड़ की सेना को मंडोर पर अधिकार करने में बाधा देने वाला कोई न रहा । इसी से रावत चूंडा ने आगे बढ़ वहाँ पर अधिकार कर लिया, और उसकी रक्षा के लिये गोडवाड़ से लेकर मंडोर तक अपनी चौकियाँ बिठा दीं ।
उधर जिस समय मेवाड़वाले मंडोर पर अधिकार करने को बढ़े चले आ रहे थे, इधर उस समय जोधाजी के मांडलं पहुंचने पर उनकी भेट उनके भाई काँधल से हो गई । इसके बाद जोधाजी मय अपने अन्य साथियों के, जो इधर-उधर से आकर साथ होलिए थे, सोजत और मंडोर की तरफ़ होते हुए काहुनी ( जाँगलू के एक गाँव ) की तरफ़ चले, और वहाँ पहुँचने पर अवकाश मिलते ही इन्होंने अपने पिता राव रणमल्लजी का औलदैहिक कर्म आदि किया।
जोधाजी के उस तरफ़ जाने के अनेक कारण थे । उनमें से पहला उस प्रदेश का रेतीला और निर्जल होना था, क्योंकि इससे वहाँ पर शत्रुओं के आक्रमण का भय बहुत कम था । दूसरा चूंडासर आदि आस-पास के कुछ प्रदेशों पर पहले से ही
१. ख्यातों में यह भी लिखा है कि यहीं पर चौहान (देलण का पुत्र ) समरा ३०० योद्धाओं
के साथ आकर राठोड़ों के शरीक हो गया था। परन्तु इस युद्ध में वह अपने २५० वीरों के साथ मारा गया । इसके बाद उसका पुत्र नरा अपने बचे हुए ५० आदमियों को साथ लेकर मार्ग में जोधाजी से आ मिला, और इन्हीं के साथ सोजत की तरफ़ गया । इसी सेवा के कारण जोधाजी ने मंडोर पर अधिकार हो जाने पर उसे अपना
मंत्री बनाया था। २. यह स्थान देसूरी से ६ कोस पर है । ३. उस समय तक मंडोर पर शत्रुओं का अधिकार हो चुका था। ४. यह स्थान (आधुनिक ) बीकानेर से १० कोस पर है ।
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