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मारवाड़ का इतिहास
पहले लिखा जा चुका है कि वीरमदेव और मीम नित्य ही शेरशाह को मालदेवजी के विरुद्ध भड़काते रहते थे । परन्तु इस हुमायूँ वाली घटना से उन्हें इसके लिये और भी अच्छा मौका मिल गया । इस प्रकार उन के बहुत कुछ कहने-सुनने और प्रलोभन देने से वि० सं० १६०० (ई० सन् १५४३ ) में शेरशाह ने आगरे से मालदेवजी पर चढाई करदी । इसकी सूचना पाते ही ये भी अपनी सेना तैयार कर अजमेर की तरफ़ आगे बढ़े और उसके आने की प्रतीक्षा करने लगे। उस समय रावजी के पास ८०,०००' वीर योद्धा थे । जब इनके इस प्रकार तैयार होकर सम्मुख रणांगण में प्रवृत्त होने का समाचार शेरशाह को मिला, तब उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ गया और वह मार्ग से ही लौट जाने का विचार करने लगा । परन्तु वीरमदेव आदि ने
साथ शत्रुसेना के सामने भेजा । उसने भी तत्काल वहाँ पहुँच एक तंग जगह से निकलती हुई मालदेवजी की सेना पर हमला कर दिया । इससे थोड़ी ही देर के युद्ध में राजपूत सैनिक परास्त होकर भाग गए । इसके बाद बादशाह जैसलमेर की तरफ रवाना हुआ और उसके वहाँ पहुँचते-पहुंचते रास्ता भूले हुए वे अमीर भी लौटकर उससे आ मिले।
(देखो भाग १, पृ० १८१) परन्तु 'तबकाते अकबरी' में मालदेवजी की सेना के मुकाबले में जानेवाले शाही सैनिकों की संख्या कुल २२ ही लिखी है । यहाँ पर 'तबकाते अकबरी' की एक घटना का उल्लेख कर देना और भी उचित समझते हैं। इससे राव मालदेवजी के वीर सैनिकों की वीरता का कुछ अनुमान हो जायगाः
'जिस समय बादशाह हुमायूँ मालदेव के इलाके से उमरकोट की तरफ रवाना हुआ, उस समय राव के दो हिन्दू जासूस शाही सेना में आए हुए थे । परन्तु जब वे पकड़े जाकर बादशाह के सामने लाए गए और बादशाह ने उनसे असली हाल जानने की कोशिश शुरू की, तब उन दोनों ने अपने को बंधन से छुड़वाकर पास में खड़े हुए दो मनुष्यों के कटार छीन लिए और तत्काल शाही सेना के १७ पुरुषों और बादशाह की सवारी के घोड़े के साथ कई अन्य घोड़ों को मारकर वे वीरगति को प्राप्त हुए ।'
(देखो पृ० २०६) गुलबदन बेगम के 'हुमायूनामे' से भी इस बात की पुष्टि होती है।
(देखो पूर्वोक्त अनुवाद, पृ० १०३) हुमायूँ के उमरकोट पहुँचने पर उसी की. मदद से सोढा राजपूतों ने फिर से उमरकोट पर अधिकार कर लिया था। १. 'तबकाते अकबरी' और 'तारीख फरिश्ता' में राव मालदेवजी की सेना में ५०,००० सैनिकों का होना लिखा है।
( देखो क्रमशः पृ० २३२ और जिल्द १, पृ० २२७)
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