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राव चन्द्रसेनजी किया और मुईनुद्दीन अहमदखाँ आदि सरदारों के साथ, एक फ़ौज देकर, उसे भी हुसेनकुली बेग़ की सहायता में जोधपुर भेज दिया । कुछ ही समय में शाही सेना ने किला विजय कर लिया ।"
इसके बाद वि० सं० १६२७ ( हि० सन् १७८ = ई० सन् १५७० ) में जब बादशाह अकबर अजमेर होता हुआ नागोर पहुँचा, तब राजस्थान के कई रईस उससे मिलने को वहाँ गए । यह देख राव चन्द्रसेनजी भी शाही रंग-ढंग का पता लगाने को नागोर पहुँचे | बादशाह ने इनका बड़ा आदर-सत्कार किया । बादशाह की हार्दिक इच्छा थी कि यदि यह नाममात्र को भी उसकी अधीनता स्वीकार करलें, तो जोधपुर का राज्य इन्हें सौंप दिया जाय । परन्तु अपनी स्वाधीन प्रकृति के कारण यह किसी प्रकार भी बादशाही अधीनता स्वीकार करने को उद्यत न हुए और नागोर से लौट कर भाद्राजण चले गए ।
मारवाड़ की ख्यातों में लिखा है कि इसके बाद ही बादशाही सेना ने भाद्राजण को घेर लिया । यद्यपि देशकालानुसार राव चन्द्रसेनजी ने भी उसका सामना करने में कसर नहीं की, तथापि कुछ ही दिनों में खाद्य सामग्री का अभाव हो जाने के कारण इनको सिवाने की तरफ़ चला जाना पड़ा ।
वि० सं० १६२१ ( ई० सन् १५७२ ) में जिस समय सेना-संग्रह करते हुए चन्द्रसेनजी का डेरा कापूजा में पड़ा, उस समय प्रसरलाई का स्वामी (खींचा का पुत्र ) रत्नसिंह मुसलमानों से मिल जाने के कारण रावजी के बुलाने पर भी उपस्थित नहीं हुआ। इससे क्रुद्ध होकर चन्द्रसेनजी ने आसरलाई पहुँच उस गाँव को ही
नष्ट-भ्रष्ट कर डाला ।
१. यहीं पर मालदेवजी के तृतीय पुत्र उदयसिंहजी, बीकानेर के राव कल्याणमलजी और महाराजकुमार रायसिंहजी आदि आकर बादशाह से मिले थे । बादशाह ने उदयसिंहजी को तो समावली के गूजरों को दबाने के लिये भेज दिया और रायसिंहजी को अपने पास रख लिया। इसके बाद ही जोधपुर का प्रबन्ध भी इन्हीं रायसिंहजी के अधिकार में दे दिया गया। राव मालदेवजी का ज्येष्ठ पुत्र राम भी जोधपुर में नियत हुआ और उधर से गुजरात को जानेवाले मार्ग की रक्षा के कार्य में शरीक किया गया ।
' तबकाते - अकबरी' में अकबर का हि० स० ६७७ की १६ जमादिउल आखिर ( वि० सं० १६२६ की पौष वदि ३ ई० स० १५६६ की २६ नवंबर) को नागोर पहुँचना लिखा है । वह वहां पर ५० दिन तक रहा था। (देखो, पृ० ८६ )
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