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राव मालदेवजी लेने का अवसर आया देख तत्काल ही मिरजा शरफुद्दीन को मय सेना के उसके साथ कर दिया । इन लोगों ने मेड़ते पहुँच वहाँ के किले को घेर लिया । परन्तु कई दिन बीत जाने पर भी जब वे लोग राठोड़ों की वीरता के सामने सीधी तरह किले पर अधिकार न कर सके, तब उन्होंने सुरंग लगाकर किले का एक बुर्ज उड़ा दिया । इसके बाद शाही सैनिक इस रास्ते से अंदर घुसने का जी तोड़ प्रयत्न करने लगे। परन्तु मुट्ठी-भर राठोड़ वीरों ने वह बहादुरी दिखलाई कि शाही सेना को ठिठककर रुक जाना पड़ा । रात्रि में युद्ध बंद हो जाने पर किलेवालों ने बडी कोशिश के साथ वह बुर्ज फिर से खड़ा कर लिया, इससे शाही सेना का सब प्रयत्न विफल हो गया। परन्तु इसके कुछ दिन बाद जब किले की रसद बिलकुल ही समाप्त हो चुकी, तब बचे हुए राठोड़ों ने किला छोड़ कर बाहर निकल जाने का इरादा प्रकट किया । शाही सेना के अफसर तो इन वीरों की वीरता का लोहा पहले से ही मान चुके थे। अतः उन्होंने इसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं की और वे किले के दरवाजे से हटकर खड़े हो गए । इस पर जगमाल तो किले से निकल कर चला गया । परन्तु जिस समय देवीदास अपने ४०० सवारों सहित शाही सेना के सामने से जाने लगा, उस समय लोगों के भड़काने से मिरजा ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और उसके निकलने पर उसका पीछा किया । कुछ ही दूर जाने पर जब देवीदास को इस बात
शत्रु जोधपुर का राजा मालदेव निवास करता है, जिसके पास बहुत अधिक साज-सामान है । यह सोच उसने अपना रास्ता बदल लिया और वह नागोर से बीकानेर चला गया। वहां पर कल्याणमल
और उनके पुत्र रायसिंह ने उसकी बड़ी मेहमानदारी की । इसलिये वहां पर कुछ दिन आराम कर वह पंजाब की तरफ़ चला गया ।-(देखो पृ० २५२) १. कहीं-कहीं यह भी लिखा है कि राव मालदेवजी ने अपने महाराजकुमार चंद्रसेनजी को
सेना देकर मेड़तेवालों की सहायता के लिये भेज दिया था। परंतु वहां पहुंचने पर उनके साथ के सरदार अपने से कहीं बड़ी शाही सेना से सामना करना हानिकारक जान उन्हें
जोधपुर वापस ले आए। इसी प्रकार ख्यातों में यह भी लिखा है कि मेड़तेवालों की सहायता के लिये रीयां के राठोड़ साँवलदास ने भी अपनी सेना लेकर अचानक ही शाही फौज पर हमला कर दिया था। परंतु युद्ध में घायल हो जाने के कारण उसे लौट जाना पड़ा। इसका बदला लेने को यवन सेना के एक भाग ने जाकर रीयां को घेर लिया । इन्हीं के साथ के युद्ध में साँवलदास मारा गया । २. 'अकबरनामे में लिखा है कि उस समय मेड़ते पर मालदेव का अधिकार था, जो उस समय के सब से बड़े राजाओं में से था और उसकी तरफ से वहां की रक्षा का भार एक
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