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मारवाड़ का इतिहास बंधु समझ हर तरह से इनका आदर सत्कार किया । उसी के द्वारा यह बादशाह से मिले, और समय पर सहायता देने का वादा कर इन्होंने यात्रियों पर लगनेवाला शाही कर माफ करवा दिया ।
यहाँ से आगे बढ़ जब यह गया की तरफ़ चले, तब मार्ग में इनकी मुलाकात जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह से हुई । बातचीत के सिलसिले में इन्होंने लौटते समय ग्वालियर के आस-पास के उपद्रवियों को दंड देने का वादा कर गया के यात्रियों पर लगनेवाला कर भी छुड़वा दियो ।
घोसंडी ( मेवाड़) से मिले महाराणा रायमल्ल के वि० सं० १५६१ (ई. सन् १५०४ ) के लेख में लिखा है
"श्रीयोधक्षितिपतिरुनखड्गधारा
निर्घातप्रहतपठाणपारशीकः ॥ ५ ॥ पूर्वानतासीद्गयया विमुक्तया
___ कारयां सुवर्णैर्विपुलैर्विपश्चितः ।" अर्थात्-जोधाजी की तलवार से अनेक पठान मारे गए । इन्होंने गया के यात्रियों पर लगनेवाले कर को छुड़वा कर अपने पूर्वजों को और काशी में सुवर्ण दान कर वहाँ के विद्वानों को संतुष्ट किया ।
ख्यातों के अनुसार इन्होंने प्रयाग, काशी, गया और द्वारका आदि तीर्थों की यात्रा की, और लौटते हुए हुसैनशाह के शत्रुओं की गढ़ियों को नष्ट-भ्रष्ट कर अपनी प्रतिज्ञा निबाही।
इसी बीच भाद्राजन के सींधल आपमल ने राव जोधाजी के कुँवर शिवराज को सिवाना दिलवाने का बहाना कर वहाँ के स्वामी विजा को मार डाला, और सिवाने पर स्वयं अधिकार कर लिया । परन्तु जैसे ही इसकी सूचना विजा के पुत्र देवीदास को मिली, वैसे ही उसने जाकर फिर से सिवाना छीन लिया । जोधपुर लौटने पर
रामपुर (एटा-ज़िले में) की तवारीख़ में लिखा है कि १५ वीं शताब्दी में जब जौनपुर के बादशाह ने आठवें राजा कर्ण को शम्साबाद से निकाल दिया, तब वह उसेत (बदायूं-ज़िले) में किला बनवाकर रहने लगा । वहां पर उसकी तीन पीढ़ी ने राज्य किया ।
१. उस समय गया पर हुसैनशाह का अधिकार था। २. जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भा० ५६, अंक १, नं० २।
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