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मारवाड़ का इतिहास
इसी बीच मेवाड़ के सरदारों ने दासीपुत्र वणवीर से दूषित होते हुए चित्तौड़ के राजवंश को बचाने का इरादा किया और इसी के अनुसार महाराना विक्रमादित्य के छोटे भ्राता उदयसिंह को चित्तौड़ की राजगद्दी पर बिठाने का प्रबंध करने लगे। परंतु यह कार्य किसी बड़े पड़ोसी नरेश की सहायता के विना असंभव था । अतः उन्होंने उस समय के प्रतापी नरेश राव मालदेवजी से इस कार्य में सहायता प्राप्त करने का विचार किया, और इसके लिये पाली के ठाकुर सोनगरा चौहान अखैराज को उनसे प्रार्थना करने को भेजा । रावजी ने भी उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और अपने सेनापति कँपा और खींवकरण को लिख दिया कि वे शीघ्र जाकर मेवाड़ की गद्दी प्राप्त करने में उदयसिंहजी की सहायता करें । अंत में राठोड़ों और राजभक्त सीसोदियों की सहायता से वणवीर भाग गया, और महाराना उदयसिंह मेवाड़ की गद्दी के स्वामी हुए। इसके बाद जब महाराना उदयसिंहजी ने राठोड़ सरदारों को बिदा किया, तब इस उपकार के बदले मालदेवजी की भेट के लिये ४०,००० फीरोजी सिक्के और वसंतराय नामक एक हाथी भेजा । यह घटना वि० सं० १५१७ ( ई० स० १५४०) की है।
राव मालदेवजी का एक विवाह खैवे के स्वामी झाला जैतसिंह की कन्या से हुआ था । इसीसे एक बार यह शिकार करते हुए अपनी सुसराल जा पहुँचे, और वहां पर इन्होंने अपनी छोटी साली के रूप और गुणों को देख उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की। इस पर इनके श्वसुर ने भी इसे अंगीकार कर लिया और इस कार्य की तैयारी के लिये दो मास की अवधि चाही । परंतु जब मालदेवजी लौटकर जोधपुर चले आए, तब उसने गुढे में जाकर चुपचाप उस कन्या का विवाह मेवाड़ के
१. यह महाराना रायमल के पुत्र पृथ्वीराज का उपस्त्री-पुत्र था। २. यह मारवाड़-नरेश का सामंत था। ३. उस समय पूपा और नींबाज ठाकुर खींवकरण २,५०० सवारों के साथ मदारिया के थाने
पर थे । जिस समय वणवीर ने मेवाड़ की गद्दी दबाई थी, उस समय मालदेवजी ने अपनी सेना को भेजकर गोढवाड़, बदनोर, मदारिया, कोसीथल आदि मेवाड़ के बहुत-से स्थानों पर अधिकार कर लिया था, और उन्हीं की रक्षा के लिये मदारिये में राठोड़ों का प्रबल
थाना रक्खा गया था। ४. मालदेवजी के सामंत सोनगरा अखैराज और जैताजी ने भी इस कार्य में मेवाड़वालों को
सहायता दी थी। ५. मालदेवजी ने ही इसे खैरवे की जागीर दी थी।
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