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राव मालदेवजी इसके बाद जब नागोर के शासक दौलतखाँ ने मेड़ते पर अधिकार करने के इरादे से वीरमदेव पर चढ़ाई की, तब राव मालदेवजी ने सेना-सहित हीरावाड़ी में पहुँच, वहाँ पर अपना शिविर कायम किया और वहां से आगे बढ़ नागोर पर
१. जिस समय रावजी के विजयी सैनिकों ने नागोर विजय कर इधर-उधर के गाँवों को लूटना
प्रारम्भ किया, उस समय हीराबाड़ी में सेनापति जैता का मुकाम होने से वहाँ पर किसी ने भी गड़बड़ नहीं की। इससे प्रसन्न होकर वहाँ के मुख्य पुरुषों ने अपनी कृतज्ञता के प्रदर्शनस्वरूप उक्त सेनापति को १५,००० रुपयों की एक थैली भेट की। इसी द्रव्य से रजलानी गाँव के समीप की बावली बनवाई गई थी। यह बावली इस समय भूतों की बावली के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें इसकी समाप्ति के समय का वि० सं० १५६७
( ई० स० १५४० ) का एक लेख लगा है। इस लेख के पूर्व भाग में १७ श्लोक हैं। इनमें देवताओं आदि की स्तुति है । परन्तु दूसरे भाग में
" इति श्री विक्रमायीत साके १४४० संवत् १५६७ वषे काती वदि १५ दिने रउबारे राज श्री मालदेवराःराठड रा वारा वावडी रा कमठण ऊधरता राजी श्री रिणमल राठवड़ गेत्ते (गोत्रे) तत् पुत्र राजी अखैगज, अखैराज सूतन राज श्री पंचायण पंचायण सूनन राजश्री जेताजी वावड
रा कमट ( ठा) ऊधंता--" लिखकर आगे जैता के कुटुम्बियों के नाम दिये हैं ।
इसके बाद की पंक्तियों से पता चलता है कि इस बावली के कार्य का प्रारम्भ वि० सं० १५६४ की मंगसिर वदी ५ रविवार को हुआ था। साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि इसके बनाने में १५१ कारीगरों के साथ-साथ १७१ पुरुष और २२१ स्त्रियाँ मज़दूरी का काम करती थीं ।
इसी लेख में आगे उक्त बावली के बनवाने में जो सामान लगा है, उसकी सूची दी है। उसे भी हम यहाँ पर उद्धृत कर देना उचित समझते हैं--
१५ मन सूत, ५२० मन लोहा ( पाउओं--Clamps और गोलियों के लिये । ये गोलियाँ खोदनेवालों के हथौड़ों के मुँह पर लगाई जाती थीं । आज भी यहाँ पर यह रिवाज प्रचलित है । इससे हथौड़ा ख़राब नहीं होता।) साथ ही इस लोहे को आडावला (अर्वली ) पहाड़ से उक्त स्थान तक लाने के लिये ३२१ गाड़ियों की ज़रूरत हुई थी; और २५ मन घी ( सामान लानेवाली उक्त गाड़ियों के पहियों में देने के लिये ) तथा १२१ मन सन (रस्से वगैरह के लिये) काम में लाया गया था। इनके अलावा २२१ मन पोस्त, ७२१ मन नमक, ११२१ मन घी, २५५५ मन गेहूँ, ११,१२१ मन दूसरा नाज और ५ मन अफ़ीम कारीगरों और मजदूरों के खाने में खर्च हुई थी। इस लेख में शक सम्वत् १४४० अशुद्ध है । वास्तव में श० सं० १४६२ होना चाहिए । इसी प्रकार कार्तिक वदि अमावास्या को रविवार न होकर शुक्रवार था। हाँ, कार्तिक सुदि १५ को रविवार अवश्य था। लेख में १५ का अंक भी पूर्णिमा का ही द्योतक है। आगे इसी लेख में वि० सं० १५६४ की मंगसिर वदी ५ को रविवार लिखा है। परन्तु वास्तव में उस रोज़ मंगलवार आता है। ( लेख की छाप इस समय पास न होने से इस विषय में कुछ नहीं लिख सकते ।)
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