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मारवाड़ का इतिहास पर राज-तिलक लगा दिया। इस पर जोधाजी ने भी मेवाड़वालों से छीन कर बगड़ी का अधिकार उसे वापस सौंप देने की प्रतिज्ञा की ।
इस प्रकार अपने पैतृक-राज्य को प्राप्त कर राव जोधाजी ने अपने भ्राता चाँपा को कापरड़े पर और वरजाँग को रोहट पर अधिकार करने की आज्ञा दी । उन्होंने भी शीघ्र ही दल-बल सहित वहाँ पहुँच उन स्थानों पर अधिकार कर लिया ।
इसके बाद वीर वरजाँग रोहट से आगे बढ़ पाली, खैरवा आदि विजय करता हुआ नाडोल और नारलाई (गोडवाड़-प्रांत ) तक जा पहुँचा । इसी युद्ध-यात्रा में मेवाड़ की सेना का सेनापति (रावत चूंडा का पुत्र ) माँजा मारा गया । इससे शत्रुओं का उत्साह बिलकुल शिथिल पड़ गया ।
इसी बीच स्वयं जोधाजी ने राघवदेव को भगा कर सोजत ले लिया, और उस नगर के मेवाड़ के निकट होने से वहीं पर अपना निवास नियत कर, नए भरती किए सैनिकों द्वारा, मेवाड़ की तरफ़ के मार्गों की रक्षा का प्रबंध शुरू किया। इसी अवसर पर इन्होंने, अपनी की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार, बगड़ी का अधिकार अपने बड़े भाई अखैराज को सौंप दिया ।
सोजत से भगाए जाने पर राघवदेव ने एक बार फिर मेवाड़ के बिखरे हुए सैनिकों को इकट्ठा कर नारलाई में वरजॉग से लोहा लिया । परन्तु अंत में वरजाँग के साथियों की मार सहने में असमर्थ हो उसे मैदान से भागना पड़ा। इस युद्ध में वरजाँग स्वयं अधिक घायल हो गया था । इसकी सूचना मिलते ही जोधाजी ने अपने भाई वैरसल को वहाँ के प्रबंध के लिये भेज दिया, और वरजाँग को रोहट जाकर इलाज करवाने की आज्ञा दी । वैरसल ने वहा पहुँच मेवाड़ के मार्गों को रोक दिया, और घाणेराव को उजाड़ कर वहाँ के निवासियों को गूंदोच में ला बसाया । वरजाँग भी तीन मास में ठीक होकर फिर गोडवाड़ जा पहुंचा। १. उसी दिन से मारवाड़ में यह प्रथा चली है कि जब कभी किसी महाराजा का स्वर्गवास
होता है, तब बगड़ी ज़ब्त करने की आज्ञा दे दी जाती है, और नए. महाराजा के गद्दी बैठने के समय बगड़ी ठाकुर द्वारा अपना अँगूठा चीरकर रुधिर का तिलक कर देने
पर वह आज्ञा वापस ले ली जाती है । (यह रुधिर से तिलक करने की प्रथा स्वर्गवासी महाराजा सरदारसिंहजी के समय उठा दी गई थी।
२. इसी बीच जोधाजी ने अपने भाई काँधल को मेड़ते पर अधिकार करने के लिये भेज दिया।
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