Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ इससे पता चलता है कि स्वयं इतने ग्रंथों की रचना करने के बाद भी इन्होंने हस्तप्रतियाँ तैयार करने में कितना समय लगाया होगा। कैसा निष्प्रमादी उनका जीवन होगा। परोपकार परायणता उपाध्याय यशोविजय को मात्र स्वयं का उत्थान एवं कल्याण अभीष्ट नहीं था। वे जीवनमात्र का कल्याण करना चाहते थे। उनके अंतःकरण में अनन्त संसारी जीवों को पाप, अज्ञान, महामोह, दुःखों से मुक्त करने की प्रबल इच्छा तरंगित हो रही थी, जो उनके कृतित्व में ज्योतिर्मान हो रही है। परोपकार परायण होकर उन्होंने अपने व्यक्तित्व को विशाल रूप दिया और कर्तृत्व को संवाहित सिद्ध किया। ज्ञानसार में आचार्यश्री ने ऐसी गाथा प्रस्तुत की, जो उनके जीवन का परोपकारमय स्वरूप परिचित करवाती है। उनका अंतर-मन कैसा था, इस सन्दर्भ में यशोविजय खुद अपने ग्रंथ में लिखते हैं "जाग्रति ज्ञानदृष्टिश्चेतः तृष्णाकृष्णाहिजाड्गुली, पूर्णानन्दस्य तत् किं स्यात्, दैन्यं वृश्चिक वेदना।। "छिन्दन्निति ज्ञानदात्रेण स्पृहा विषलतां बुधा मुखशोषं च मूर्छा च, दैन्यं यच्छति यत् फलम्।।" "नाहं पुद्गलभावानं कर्ता कारयितापि च नानुमन्तापि चैत्यात्मज्ञानवान लिप्यते कथम् / / "शरीर रूप लावण्य ग्रामरामधनादिभिः उत्कर्षः परपर्यापश्चिदानन्दधनस्य क। उपाध्यायजी परोपकार परायण थे। उनकी कृतियां संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी-मारवाड़ी-इन .. चार भाषाओं में गद्यबद्ध, पद्यबद्ध और गद्य-पद्यबद्ध हैं। दार्शनिक ज्ञान का असली व व्यापक खजाना संस्कृत भाषा में होने से तथा उसके द्वारा ही सकल देश के सभी विद्वानों के निकट अपने विचार उपस्थित करने का संभव होने से उपाध्यायजी ने संस्कृत में तो लिखा ही पर उन्होंने अपनी जैन परम्परा की मूलभूत प्राकृत भाषा को भी गौण न समझा। इसी से उन्होंने प्राकृत भाषा में भी रचनाएं की। संस्कृत-प्राकृत नहीं जानने वाले एवं मंद गति वाले या कम जानने वालों तक अपने विचार पहुंचाने के लिए उन्होंने तत्कालीन गुजराती की जन-भाषा में भी विविध रचनाएं की। मौका पाकर कभी उन्होंने हिन्दी-मारवाड़ी का भी आश्रय लिया। इस प्रकार यशोविजय ने सभी जीवों के कल्याण के लिए परोपकार की भावना रखी। सभी जीवों के हित को ध्यान में रखते हुए उपाध्याय ने नयचक्र जैसे गहन ग्रंथ की भी रक्षा करके उद्धार किया। यह एक दार्शनिक ग्रंथ है। समूचे ग्रंथ में तत्कालीन प्रसिद्ध दर्शनों की समीक्षा यहां हुई है। एकान्तवादी सभी दर्शन सही नहीं हैं। ऐसा 13वां स्याद्वाद तुम्भ नामक प्रकरण में स्याद्वादरूपी नाभि का आश्रय लेकर सभी दर्शनों को अंशतः सही दिखाने का प्रयास किया है। इस पूरे ग्रंथ का मूल सार एक गाथा में है, जो निम्न है विधिनियभङ्गवृतिव्यतिरिकतत्वादर्थक्वचोवत्। जैनादन्यच्छासनमनृत भवतीति वैधर्म्यम्।। ऐसे महान् ग्रंथ का आधार उपाध्यायजी ने परोपकार की भावना को लक्ष्य में रखकर किया। 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org