Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ 3. अज्ञान को दूर करने के लिए सम्यक् ज्ञान और 4. आध्यात्मिक बंधन से मुक्ति अर्थात् पूर्णता की सिद्धि। इस प्रकार सभी आध्यात्मिक साधनाएँ इन चारों सिद्धान्तों को स्वीकार करती हैं, भले ही विभिन्न परम्पराओं में ये विभिन्न नामों से व्यवहृत हुए हों। योग-साधना के अन्तर्गत अनेक प्रकार के आचार, ध्यान तथा नय का समावेश है। परन्तु इस सबका लक्ष्य आत्मा का विकास ही है और उसके लिए मनोविकारों को जीतना आवश्यक है। यौगिक क्रियाओं के आदर्श विभिन्न ग्रंथों में अलग-अलग हैं। ये इस प्रकार हैं भारतीय दर्शन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति है और उसके लिए योगदर्शन, बौद्धदर्शन तथा जैनदर्शन में क्रमशः कैवल्य, निर्वाण तथा मोक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है, जो अर्थ की दृष्टि से समान ही है। विभिन्न दर्शनों के विभिन्न मार्ग होने पर भी फलितार्थ सबका एक ही है, क्योंकि चित्तवृत्तियों की एकाग्रता के बिना न मोक्षमार्ग उपलब्ध होता है, न आत्मलीनता सधती है। अतः चंचल मन-प्रवृत्तियों को रोकना अथवा उनका नियंत्रण करना सभी दर्शनों का उद्देश्य रहा है। योगदर्शन में पतंजलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है। बौद्धदर्शन में योग का अर्थ समाधि किया है। जैनदर्शन के अनुसार शरीर, वाणी तथा मन के कर्म का निरोध संवर है और यही योग है।18 यहाँ पतंजलि का योग शब्द संवर शब्द का समानार्थक ही है। जैन हरिभद्र के मतानुसार-मोक्खेणउ. जोयणाओ ति।19 मोक्ष के साथ आत्मा का पूजन करे वह योग माना है। अर्थात् आत्मा को महानन्द से जोड़ता है। अतः वह योग है। ज्ञानसार में भी योग की परिभाषा यही मिलती है-मोक्षेण योजनात् योगः।20 उपाध्याय यशोविजय ने भी योगविंशिका टीका में परिशुद्ध धर्म-व्यापार को योग कहा है। हरिभद्रसूरि के अनुसार योग मोक्ष प्राप्त कराने वाला अर्थात् मोक्ष के साथ जोड़ने वाला है। 22 हेमचन्द्र ने मोक्ष के उपायरूप योग को ज्ञान, श्रद्धा और चारित्रात्मक कहा है। 25 यशोविजय भी हरिभद्र का ही अनुसरण करते हैं। इस प्रकार जैनदर्शन में योग का अर्थ चित्तवृत्ति निरोध तथा मोक्षप्रापक धर्मव्यापार है। 24 उससे वही क्रिया या व्यापार विबक्षित है, जो मोक्ष के लिए अनुकूल हो अतः योग समस्त स्वाभाविक आत्मशक्तियों की पूर्ण विकासक क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुखी चेष्टा है। योग का स्रोत एवं विकास अन्य सन्दर्भो में योग शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है। उपनिषदों526 में योग शब्द आध्यात्मिक अर्थ में मिलता है। महाभारत एवं श्रीमद्भगवदगीता में योग के विभिन्न अंगों का विवेचन एवं विश्लेषण उपलब्ध है। यहां तक की गीता में 18 अध्यायों में 18 योगों का वर्णन ह328 जिनमें अनेकविध साधनाएँ कही गई हैं। भागवत एवं स्कन्धपुराण30 में कई स्थलों पर योग की चर्चा है। योगवाशिष्ठ। में छह प्रकरणों में योग के विभिन्न सन्दर्भो की विस्तृत व्याख्या है। न्यायदर्शन में भी योग को यथोचित स्थान मिला है। कणाद ने वैशेषिक दर्शन में यम, नियमादि योगों का सम्यक् उल्लेख किया है। ब्रह्मसूत्र के तीसरे अध्याय का नाम साधना पाद है, जिसमें आसन, ध्यान आदि योगों की चर्चा है। 370 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org