Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ आवश्यकता इस बात की है कि पश्चिम में विकसित हो रहे इस भाषा-दर्शन को भारतीय भाषा-दर्शन के सन्दर्भ में देखा या परखा जाये। आशा है कि भाषादर्शन की इन प्राचीन और अर्वाचीन पद्धतियों के माध्यम से मानव सत्य के द्वार को उद्घाटित कर सके। भाषा-दर्शन एवं पाश्चात्त्य मन्तव्य भारतीय चिन्तन से भाषा-दर्शन का विकास जहाँ तक भारतीय दर्शन का प्रश्न है, यह सत्य है कि यहाँ भी दर्शन का प्रारम्भ तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों से हुआ है। परमसत्ता, जीव और जगत् प्रारम्भिक भारतीय चिन्तन के केन्द्रबिन्दु रहे हैं। फिर ईसा पूर्व छठी शती से बन्धन या दुःख, बन्धन या दुःख का कारण, मुक्ति और मुक्ति के उपाय भारतीय दार्शनिक चिन्तन के आधार बने और तत्त्वमीमांसा के स्थान पर आचारदर्शन प्रधान केन्द्र बना, किन्तु दार्शनिक चिंतन के विकास के साथ ही ईसा की प्रथम शताब्दी से ही यहाँ ज्ञानमीमांसा और भाषा-दर्शन की विविध समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार-विमर्श प्रारम्भ हो गया था। यद्यपि प्राचीन भारतीय चिन्तन में भी तत्त्वमीमांसीय और ज्ञानमीमांसीय समस्याओं के साथ-साथ सत्ता की वाच्यता को लेकर भाषादर्शन के क्षेत्र में भी किसी सीमा तक दर्शन का प्रवेश हो गया था। भाषादर्शन की अनेक समस्याएँ भारत के दार्शनिक साहित्य में प्राचीन काल से ही उपलब्ध होती है। परमतत्त्व की अनिर्वचनीयता के रूप में भाषा को सामर्थ्य एवं सीमा की चर्चा हमें औपनिषदिक चिन्तन में भी उपलब्ध हो जाती है। पाणिनि और पतंजलि ने भाषादर्शन संबंधी अनेक समस्याओं को उद्घाटित किया है और जिनके आधार पर आगे चलकर भर्तृहरि ने पूरा वैयाकरण दर्शन ही खड़ा कर दिया है। इतना ही नहीं न्याय तथा मीमांसा जैसे आस्तिक दर्शनों में और बौद्ध तथा जैन नास्तिक कहे जाने वाले दर्शनों में शब्द और उसके वाच्यार्थ की समस्या, शब्द प्रामाण्य की समस्या तथा भाषायी कथनों की सत्यता व असत्यता की समस्या पर काफी गम्भीरता से चर्चा हुई है। भारतीय दर्शन के क्षेत्र में वैयाकरणिकों का पूरा सम्प्रदाय ही भाषा की समस्या को प्रमुख बनाकर चलता है। यह बात अलग है कि शब्द-ब्रह्म की स्थापना कर उसने अपने चिन्तन की दिशा तत्त्वमीमांसा की ओर मोड़ दी है। बौद्धों ने अपने अपोहवाद में शब्द के वाच्यार्थ के प्रश्न पर काफी गम्भीरता से चर्चा की है। इसी प्रकार वेदों के प्रामाण्य को सिद्ध करते हुए मीमांसकों ने भाषा-दर्शन के अनेक प्रश्नों को गम्भीरता से उठाया है। जहाँ तक जैनों के भाषा-दर्शन का प्रश्न है, चाहे उन्होंने शब्द की नित्यता एवं शब्द का अर्थ से संबंध आदि के सन्दर्भ में मीमांसकों, वैयाकरणिकों और बौद्धों के बाद प्रवेश किया हो, किन्तु वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता, कथन की सत्यता आदि भाषा दर्शन के कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिन पर प्राचीनतम जैन आगमों में भी प्रकाश डाला गया है। शब्द की वाच्यता-सामर्थ्यता का प्रश्न आचारांग में उपलब्ध है। स्थानांग के 10वें स्थान में सत्यभाषा-असत्यभाषा की चर्चा है। प्रज्ञापना का भाषापद, अनुयोगद्वार का नामपद भाषादर्शन से संबंधित है। भगवती सूत्र में भी भाषा संबंधी कुछ विवेचनाएँ उपलब्ध हैं। महावीर के जीवनकाल में क्रियमानकृत के प्रश्न पर उनमें ही जामातृ जमाली द्वारा उठाया गया विवाद, जिसमें कारण संघभेद भी हुआ-भाषा दर्शन से ही संबंधित था। भगवती सूत्र के प्रारम्भ में एवं पुनः जमाली वाले प्रसंग में इस चर्चा को विस्तार से उठाया गया है। इन सभी को जैनों में भाषा-दर्शन का एक प्रमुख आधार माना जा सकता है। पुनः निक्षेप और नय की अवधारणाएँ भी आगमों में उपलब्ध है। इन अवधारणाओं का मूलभूत उद्देश्य भी वक्ता के कथन की विवक्षा अर्थात् वक्ता के आशय को समझना 454 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org