Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 635
________________ निष्णांत, निर्ग्रन्थनय के निपुणनर के रूप में उपस्थित हुए हैं। इन्होंने श्रमण सिद्धान्त को समन्वयता से सुयशस्वी बनाने का जो एक सूक्ष्म दृष्टिकोण समुपस्थित किया है, वह शताब्दियों तक इनकी सराहना करता रहेगा। निर्विरोध और निर्वैरता से विपक्ष को विशेष सम्मान देते हुए स्वयं के प्ररूपण में पारदर्शी प्राप्त होते हैं। ऐसी उनकी अनुपमेय विद्वत्ता विद्वत् समाज को मार्गदर्शन देती, मध्यस्थ भाव में रहने का सुझाव देती है। इनकी यह माध्यमिक वृत्ति और प्रवृत्ति पुरातन प्रचण्ड प्रदोह को प्रनष्ट करती है, शालीनता से जीवन जीने की प्रेरणा देती है। प्रामाणिकता से अपने सिद्धान्त को सहजता से सुवाचित करके सुभाषित बनाते स्वयं की मेधा को मनोज्ञ बनाते रहे हैं। इनकी मेधा का मनोज्ञपन महाविरोधियों को भी विद्या-विवेक का विमर्श देता रहा है। परों से पराजित नहीं हुए, अपरों से अनाहत नहीं बने, ऐसा उनका विद्यामय व्यक्तित्व एवं विशाल श्रमण संस्कृति के संरक्षक रूप में समुपस्थित रहे हैं। प्रत्येक काल इनकी कृतियों का और इनकी आकृतियों का अर्जन करता, आदर करता और इनकी अपार उदारता का समादर बढ़ाता संस्कृत साहित्य और समाज के ओजस को और तेजस को तपोनिष्ठ बनाता रहेगा। उपाध्यायजी चले गये परन्तु उपाध्यायजी हितकारिणी प्रवृत्तियों का और उनकी लिखित कृतियों का पुण्योदय कभी भी न क्षीण होगा, और न कोई क्षपित, क्षयित कर सकने का अधिकारी बनेगा। अन्य दर्शनिक परम्पराएँ और अनेकान्तवाद डॉ. सागरमल जैन “अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार" में लिखते हैं-"अनेकान्तिक दृष्टि श्रमण परम्परा के अन्य दार्शनिकों में भी प्रकार-भेद से उपलब्ध होती है।" संजयवेलट्ठि पुत्र का मंतव्य बौद्ध ग्रंथों में निम्न रूप से प्राप्त होता है। (1) है! ऐसा नहीं कह सकता। (2) नहीं है! ऐसा भी नहीं कह सकता। (3) है भी और नहीं भी? ऐसा भी नहीं कह सकता। (4) न है और न नहीं है? ऐसा भी नहीं कह सकता। इससे यह फलित होता है कि संजयवेलट्ठि पुत्र भी एकान्तवादी दृष्टि के समर्थक नहीं हैं। उपनिषदों में भी हमें सत्-असत्, उभय व अनुभय, अर्थात् ये चार विकल्प प्रकीर्ण रूप से उपलब्ध होते हैं। औपनिषदिक चिन्तन एवं उसके समान्तर विकसित श्रमण परम्परा में यह अनेकान्त दृष्टि किसी-न-किसी रूप में अवश्य उपस्थित रही है, किन्तु उसमें अभिव्यक्ति की शैली भिन्न है। इस युग के बाद भारतीय चिन्तन की दार्शनिक युग में भी विविध दर्शनों ने इस शैली को अपनाया है। ब्रह्मानन्द ग्रंथ में अद्वेतानन्द प्रकरण में विद्यारणयस्वामी ने कहा है-घट मिट्टी से भिन्न नहीं है, क्योंकि जब मिट्टी का वियोग होता है, तब घट नहीं दिखता है। इसी प्रकार घट मिट्टी से अभिन्न भी नहीं है, क्योंकि पूर्व में पिण्ड अवस्था में घट नहीं दिखता है।" इस प्रकार एक ही घट में भिन्नत्व-अभिन्नत्व-इन दो विरुद्ध धर्मों को स्वीकार करके स्याद्वाद की पुष्टि की गई है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है यस्य सर्वत्र समता, नयेषु तनयेष्विव। तस्यानेकान्त वादस्य, कव न्यूनाधिकशेमुषी।। 553 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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