Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 667
________________ अंत में भाषादर्शन में उपाध्याय यशोविजय के वैशिष्ट्य को बताते हुए कहा है कि उपाध्यायजी खुद तर्काधिपति होते हुए भी उन्होंने तर्क एवं सिद्धान्तों को संकलित रखा है। सामान्य से उन्होंने अपने ग्रंथों में खुद के कथन की पुष्टि हेतु प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रामाणिक ग्रंथों का प्रमाण देने में कसर नहीं रखी है। भाषादर्शनलक्षी उपाध्यायजी का भाषा रहस्य ग्रंथ अनमोल रत्न है। आगम आदि साहित्य में ऐसी कई बातें हैं जो बाह्य दृष्टि से विरोधग्रस्त लगती हैं। उपाध्यायजी की विशेषता यह है कि उन बातों को प्रगट करके अपनी गम्भीर एवं दुर्बोध ऐसे स्याद्वाद नय आदि के द्वारा उसका सही अर्थघटन करते हैं। उनकी स्वोपज्ञ टीका में अनेक विशिष्ट पदों की गहराई दृष्टिगोचर होती है। ___ एतदर्थ जीव में से शिव बनने के लिए सदा उद्योगी साधकों के लिए भाषा से भलीभांति सुपरिचित होना अति आवश्यक है, यह बताने की जरूरत नहीं है। भारती के माध्यम से किस पहलू से अपने इष्ट फल की सिद्धि हो, जिसमें जिज्ञासा का भंग न हो, यह ज्ञान होना प्रत्येक साधक के लिए प्राणवायु की भांति आवश्यक है। इस वस्तुस्थिति को लक्ष्य में रखकर भाषा संबंधी वक्तव्य के रहस्यार्थ को परोपकारार्थ प्रकट करने के लिए उपाध्यायजी ने भाषा दर्शन लक्षी भाषा रहस्य नामक ग्रंथ की रचना की एवं स्वोपज्ञ विवरण से उसे अलंकृत किया। इसलिए भाषादर्शनलक्षी अनेक विशेषताओं से विशिष्ट है। उपाध्याय यशोविजय ने रहस्य से अंकित 108 ग्रंथ लिखे थे इसलिए अष्टम अध्याय में यशोविजय का रहस्यवाद पर प्रकाश डाला गया है। रहस्यवाद वस्तुतः अर्वाचीन सम्प्रत्यय है किन्तु रहस्यभावना, रहस्यवाद भारतीय वाङ्मय में प्राचीनकाल से विद्यमान है। रहस्यवाद शब्द रहस्य+वाद-इन दो शब्दों के मेल से बना हुआ है। रहस्य अर्थात् परमतत्त्व और वाद अर्थात् विचार। इस प्रकार रहस्यवाद का अर्थ है-परमतत्त्व विषयक विचार। आध्यात्मिक दृष्टि से रहस्यवाद का मूलार्थ है-परमतत्त्व संबंधी वह विचार या भावना जिसमें अन्त ज्ञान पर आधारित अपरोक्षानुभूति का तत्त्व सन्निहित है। रहस्यभावना के मूल या बीज को वेदों, उपनिषदों, बौद्ध साहित्य में भी खोजा जा सकता है। रहस्य शब्द की व्युत्पत्ति रह्यते अनेन इति रह, रहसि भवं रहस्यम् रहो भवं रहस्यम् रहो इत्यादि व्युत्पत्तियां की जा सकती हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार रहस्य शब्द की व्युत्पत्ति रह एकान्त स्तत्र भवं रहस्यम् है तथा रहस्य शब्द का अर्थ एकान्त किया है। रहस्य शब्द के विभिन्न अर्थ का निरूपण किया गया है, जैसे गृह्य गोपनीय एकान्त में उत्पन्न तत्त्व, भावार्थ अपवाद स्थान विविकत विजन छत्र निःशलाक रह, रपांक्षु भेद मर्म सारतत्त्व आदि होने पर भी उनके अतिरिक्त रहस्य शब्द खेल, विनोद, मजाक, मस्ती, मैत्री, स्नेह, प्रेम एवं पारस्परिक सद्भाव जैसे अन्य अर्थों में भी व्यवहृत हुआ है। विभिन्न धर्मग्रंथों में रहस्य का भिन्न-भिन्न अर्थ होता है। ऋग्वेद में रहसरि वागः, उपनिषद् में रहस्यमय पूजा पद्धति। वैदिक साहित्य में रहस्य का अर्थ प्रत्यय पाया जाता है। जैनागमों, जैसेउत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नायाधम्मकहाओ, सूयगडांग, रायपसेणीय, औपपातिक पण्णावागरणं, उवासगदशांग, ठाणांग आदि में भी रहस्यवाद व्यवहृत हुआ है। उसका अर्थ उसमें गुप्त बात, छिपी हुई बात, प्रच्छन्न गोप्य, विजन, एकान्त, अकेला, जूठ इस्व, अपचार स्थान आदि किया गया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में एक विशेष अर्थ है और वह अर्थ भी हमें जैन साहित्य में मिलता है। ओघनियुक्ति में रहस्य शब्द का प्रयोग परमतत्त्व के रूप में हुआ है। 582 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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