Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ . उपाध्यायजी का दर्शन अन्य दर्शनों की अवधारणाओं से गर्भित है, गुम्फित है, फिर भी स्वयं की दार्शनिकता जीवित मिलती है। दर्शन ग्रंथों में जहाँ अन्य अवधारणाएँ अवसान तुल्य बन जाती हैं। सम्मान देकर स्वयं को स्वदर्शन में प्रतिष्ठित रखने का उपाध्यायजी का प्रयास प्रशंसनीय रहा है, ऐसी अद्भुत दार्शनिकता का दर्शन उपाध्यायजी के वाङ्मय में दर्शित होता है। सत् का अस्तित्व इतिहास मान्य है, समाज स्वीकार्य है। सभी दार्शनिकों को स्पष्ट सम्बोध है कि सत् एक अस्तित्वमान सत्य है और वह तत्त्व भी है। सत्य क्यों है कि वह आत्मवाद से अभिन्न है और तत्त्व क्यों है कि वह दार्शनिक विचारश्रेणि का नवनीत पीयूष है। अतः सत् का स्वरूप और सम्बन्ध सर्वथा उपादेय है। सत् के बिना शास्त्रीय मीमांसा चरितार्थ नहीं होती है। आत्मतत्त्व अखिल दर्शन का सार है, जो सर्वत्र, सर्वमान्य है। योग ही आत्म चिंतामणि है, श्रेष्ठ कल्पवृक्ष है। योग ही सर्वधर्मों में प्रधान है तथा अणिमादि आठ सिद्धियों का स्थान है। योग जन्म बीज के लिए अग्नि समान तथा जरा अवस्था के लिए व्याघ्र समान है तथा दुःख का राज्यक्षमा है और मृत्यु का मृत्यु है। योगरूप कवच जिन आत्माओं ने धारण किया है, उनके लिए कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्र भी निष्फल हो जाते हैं अर्थात् योगी के चित को चंचल करने की शक्ति कामदेव के शस्त्रों में भी नहीं है। अतः कह सकते हैं कि योग का स्वरूप आध्यात्मिक जगत् का एक प्रतीक श्रेष्ठ स्वरूप है। - मोक्षतत्त्व एक श्रद्धागम्य तत्त्व है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय है। उसे उपादेय रूप में स्वीकारा गया है। प्रत्येक जीवात्मा अत्यन्त दुःख से निवृत्त होकर सुख की चाह करता है। दुःखनिवृत्ति मूलक सुख यदि सही है तो वो मोक्ष में है। अतः उपाध्यायजी ने मोक्ष में ही अनुपम सुख है, ऐसा स्पष्ट रूप से कहा है। अतः कह सकते हैं कि मोक्ष सभी को मान्य है, श्रद्धेय भी है। * सभी भारतीय दार्शनिकों का मत अंत में कर्मों का क्षय करके मोक्ष जाना ही है। अतः कह सकते हैं कि मोक्ष सभी को मान्य है तो अवश्य ही मानना ही पड़ेगा। कर्म विज्ञान इतना विवेचित, विवक्षित एवं विस्तारित है कि उनका ज्ञान तत्त्वबोध स्वरूप सभी के लिए अनिवार्य ही नहीं बल्कि आवश्यक है। प्रमाण सहित प्रमेय का महत्त्व मान्य बना रहा है, इसलिए सप्रमाण प्रस्तुतीकरण का उपयोग शास्त्रमान्य रहा है। सर्वज्ञ स्वयं में सत्प्रतिशत सफल सत्य है जो त्रिकाल से भी तिरोहित नहीं बन सकता। सर्वज्ञ की सर्वोत्तमता सभी को मान्य है। उपाध्यायजी ने परमात्मप्रकाश, अध्यात्मोपनिषद् में सर्वसत्ता (परमात्मा स्वरूप) का वर्णन करके सर्वज्ञ को सर्वोत्कृष्ट कोटि में रख दिया। न्यायशास्त्र वह शास्त्र है, जिसके द्वारा हम पदार्थों की ठीक-ठीक परीक्षा अथवा निर्णय करते हैं। जिस तरह भाषाएँ परिष्कृत करने के लिए व्याकरणशास्त्र की आवश्यकता है, उसी तरह बुद्धि को परिष्कृत करने के लिए न्यायशास्त्र की आवश्यकता है। न्याय के क्षेत्र में उपाध्यायजी ने नव्य न्यायशैली में 100 ग्रंथों की रचना की है। उसमें न्याय खंडन खाद्य ग्रंथ प्रमुख है। न्याय के क्षेत्र में डेढ़ लाख श्लोक प्रमाण की रचना करके जैन साहित्य में, जैन दर्शन में या न्यायक्षेत्र में चार चांद लगा दिए हैं। उपरोक्त बिन्दु के अलावा भी उपाध्यायजी ने अपनी लेखनी चलाई है, जो पारमार्थिक रूप में श्रद्धा का सम्बल है। उन्होंने अतीन्द्रिय पदार्थों को श्रद्धागम्य बताया है तो विचारों को आचारगम्य दिखाया है। उन्होंने एकान्त के साथ अनेकान्त को जोड़कर विश्व के सामने स्याद्वाद की सप्तभंगी प्ररूपित कर दी, जो अनेक प्रकार के वैर-विरोध, वाद-विवाद से हटकर समन्वयवाद की पुरोधा बनी। 585 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org