Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ सामान्यतः निर्गुण पन्थ के जन्मदाता कबीर माने जाते हैं। कबीर ने सिद्धों, नाथों की साधना का अनुसरण ही नहीं किया प्रत्युत् अपने पंथ में वेदान्त का अद्वैतवाद, नाथपंथियों का हठयोग, सूफियों का प्रेममार्ग. वैष्णवों की अहिंसा और शरणागति इत्यादि का सुन्दर समन्वय किया। कबीर के पश्चात इस परम्परा में दादू, नानक, धर्मदास आदि अनेक संत हुए। इन सभी में न्यूनाधिक रूप में रहस्यवादी विचारधारा पाई जाती है। कबीर ने साधनात्मक एवं भावात्मक रहस्यवाद की धारा सहज रूप से प्रस्फुटित की है। सगुण शाखा के अन्तर्गत रामभक्त और कृष्णभक्त सन्त कवियों के भी रहस्यात्मक प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। इनमें प्रमुख रूप में मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास का नाम लिया जा सकता है, जिनकी रचनाओं में रहस्यवादी भावना अभिव्यक्त हुई है। आधुनिक युग में हिन्दी रहस्यवादी कवियों में महादेवी वर्मा का स्थान सर्वोपरि है। प्रेम और विरह की वो अद्वितीय गायिका हैं। वस्तुतः इस युग में रहस्यवादी कवियों की अनुभूति वास्तविक न होकर कल्पनाप्रधान है। जैन धर्म के रहस्यवाद में आचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में भावात्मक अभिव्यक्ति की प्रमुखता है तो अपभ्रंश की रचना परमात्माप्रकाश, सावय धम्म दोहा तथा पाहुडदोहा में योगात्मक रहस्यवाद स्वतः प्रबल है, किन्तु मध्ययुगीन जैन हिन्दी रहस्यवादी काव्य में साधनात्मक और भावनात्मक दोनों तत्त्व पाए जाते हैं। उसी प्रकार उपाध्याय यशोविजय एक ऐसे आध्यात्मिक सन्त हुए जिन्होंने साधनात्मक, भावनात्मक, दर्शनात्मक आदि रहस्यों को उद्घाटित करके चार चांद लगा दिए हैं एवं रहस्यवादियों में अपना अग्रिम एवं अविस्मरणीय स्थान प्राप्त किया है। रहस्य से भरे हुए उपाध्यायजी के रहस्यमय ग्रंथों की बातें सुनकर चिंतन-मनन करके उनके शास्त्र रत्नों में से अपने जीवन में नवकार तत्त्वदृष्टि, केवल परिणति संवेदन, ज्ञान एवं संवेग विरागादि से परिपुष्ट आध्यात्मिकता की उच्च कक्षा पर पहुंचकर अंतरात्मदशा से उल्लासित अभ्यास कर परमात्म दशा को प्राप्त करने का प्रयत्न करे। उपाध्यायजी अन्य दर्शनों के ज्ञाता बनकर उनकी अवधारणाएँ उच्चता में हृदयंगम करते हुए अपने दार्शनिक धरातल पर अपराजित रहते हैं। अन्य दार्शनिकों के दृष्टिकोण को सम्मान स्वीकृत करते हुए अपनी मान्यता का मूल्यवान मूल सिद्धान्त प्रगटित करते और पराजयता को स्वीकार नहीं करते और न ही आत्मविजयता का अभिमान व्यक्त करते हैं। उनका यह समन्वयवाद श्रमण संस्कृति का मूलाधार बना है। श्रमण वही है जो क्षमा को, क्षमता को आजीवन पालता रहे। वाचक यशोविजय एक ऐसे उपाध्याय हैं, जिन्होंने जैन दर्शन की भव्यता, दिव्यता के साथ अन्य भारतीय दर्शनों के बीच एक सेतु का कार्य किया है। वे एक ऐसे उदारवादी दार्शनिक उपाध्याय माने जाते हैं, जिनका किसी से वैर-विरोध या राग-आसक्ति नहीं है। इसलिए उनकी दार्शनिक कृतियों में अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों का उल्लेख है, जिसका प्रस्तुतीकरण किसी-न-किसी रूप में उपाध्यायजी के दर्शन में दृष्टिगोचर होते देखा जाता है। उन्होंने आत्मक्षमता को वाङ्मय में विराजित कर अन्य की अवधारणाओं को अनाथ नहीं होने दिया। अन्यों की मान्यताओं का मूल्यांकन करने में मतिमान रहो, ऐसी उत्तम मति वाले उपाध्यायजी का दार्शनिक जीवन सभी को मान्य हुआ, क्योंकि उनकी आवाज अवरोधरूप नहीं थी, अपमानजनक नहीं थी, किन्तु आदर्शरूप थी। अतः उनके ग्रंथों में अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों को बहुमान मिला है, जिसका उल्लेख नवम अध्याय में दिया गया है। 584 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org