Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 666
________________ भाषा भावभाषा है। यहाँ खाने-पीने, गाने का उपयोग नहीं लेना है किन्तु भावभाषा के प्रयोग प्रसंग में मुझे यह इस तरह बोलना चाहिए-मैं ऐसा बोलूंगा तभी श्रोता को अर्थज्ञान हो सकेगा। ऐसा उपयोग रखना है और इस उपयोग में बोले तब वक्ता की भाषा भावभाषा कही जाती है। भाषा के भेद प्रज्ञापना सूत्र में सर्वप्रथम पर्याप्तभाषा और अपर्याप्त भाषा ऐसे दो हैं। आगम में व्यवहारनय में भाषा के चार भेद-सत्य, मृषा, असत्य, अमृषा प्रचलित हैं। निश्चय नय से भाषा के सत्य और मृषा दो ही भेद हैं। यह प्रसिद्ध ही है। उपाध्यायजी ने भाषा दर्शन के महत्त्व, भाषादर्शन एवं पाश्चात्त्य मन्तव्य, भारतीय चिंतन में भाषा दर्शन का विकास आदि का भी विस्तृत वर्णन किया है। विश्व की समस्त सत्ताएँ और समग्र घटनाएँ अपने आप में एक जटिल तथ्य हैं और जटिल तथ्यों का सम्यक् प्रतिपादन तो भाषा दर्शन के विश्लेषण की पद्धति के द्वारा ही संभव है। इसलिए महावीर और बौद्ध ने एक ऐसी प्रणाली विकसित की, जिसमें दार्शनिक एवं व्यावहारिक जटिल प्रश्नों के उत्तर उन्होंने विविध पहलुओं से विश्लेषित कर दिये हैं। प्रश्नों को विश्लेषित कर उत्तर देने की यह पद्धति जैन और बौद्ध परम्पराओं में विभज्यवाद के नाम से जानी जाती है। भाषादर्शन के महत्त्व को बताते हुए कहते हैं कि यह सत्य है कि भाषा विश्लेषणवाद एक विकसित दर्शन के रूप में हमारे सामने आया है किन्तु उसमें मूल बीज बौद्ध एवं महावीर के विभज्यवाद में उपस्थित है। न केवल इतना ही अपितु जैन, बौद्ध एवं वैयाकरण दर्शन के आचार्यों ने भाषा दर्शन में विविध आयाम प्रस्तुत किये हैं। वे सभी गम्भीर विवेचन की अपेक्षा रखते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि पश्चिम में विकसित हो रहे उस भाषा दर्शन को भारतीय भाषा दर्शन के सन्दर्भ में देखा या परखा जा सके। आशा है कि भाषा दर्शन की इन प्राचीन और अर्वाचीन पद्धतियों के माध्यम से मानव सत्य के द्वार को उद्घाटित कर सके। पाश्चात्त्य दार्शनिक देकार्ट, स्पिनोजा, अरस्तु आदि के मन्तव्यों पर विचार करने से इतना स्मरण रखना आवश्यक है कि दर्शन के क्षेत्र में जब एक विधा प्रमुख बन जाती है तो अन्य विधाएँ मात्र उसका अनुसरण करती हैं और उनके निष्कर्ष उसी प्रमुख विधा के आधार पर निकाले जाते हैं। साधारण भाषा-दर्शन में रसल, मूर, विडगेस्टाइन, आस्टिन के मतों का भी प्रतिपादन किया गया है। रसल का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है कि वाक्यों के व्याकरणात्मक आकार उनके तार्किक आकार नहीं हैं। रसल के अनुसार भाषा सूचना प्रस्तुत करने अथवा कथनों को प्रस्तुत करने का ही माध्यम नहीं है बल्कि इनसे पृथक् उनके अनेक कार्य हैं। मूर की रुचि विश्व रचना या विज्ञानों ____ में नहीं थी। मूर की समस्या विभिन्न दार्शनिकों के कथनों को लेकर है। मूर का एक महत्त्वपूर्ण कारण उनकी दृष्टि में, प्रश्नों को बिना समझे हुए उनका उत्तर देने का प्रयास है। विडगेस्टाइन रसल का अनुसरण करते हुए वाक्यों के विश्लेषण पर बल देता है। विडगस्टाइन के विपरीत आस्टिन के दर्शन का विधिवत् अध्ययन किया था और उनकी शिक्षा अरस्तु परम्परा में हुई थी। उसे भाषा-विज्ञान का अच्छा ज्ञान था, जिसका अपने दर्शन में भरपूर उपयोग किया। उसका विश्वास था कि दार्शनिक समस्याएँ एवं उनके समाधान अस्पष्ट हैं और इसका मूल कारण सभी तथ्यों पर ध्यान न देकर जल्दबाजी में सिद्धान्त की रचना करना है। उनके अनुसार दर्शन में प्रगति तभी हो सकती है जब अनेक प्रश्न उठाये जायें, अनेक तथ्यों का सर्वेक्षण किया जाए तथा अनेक युक्तियों का विस्तार से विश्लेषण किया जाये। आस्टिन का दर्शन अंग्रेजी भाषा में है, उसे यथावत् नहीं व्यक्त किया जा सकता, उसका संक्षिप्तीकरण किया जा सकता है। 581 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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