Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ अधिक स्पष्ट और विशद करने के लिए हो सकता है, किन्तु जिस व्यक्ति को आत्मज्ञान में ही रस नहीं है, उसका अन्य पदार्थों का ज्ञान अंत में निरर्थक ही है। इसलिए कह सकते हैं कि अध्यात्म का तात्विक आधार आत्मा है। आत्मा की जो शक्तियां तिरोहित हैं, उन्हीं शक्तियों को प्रकट करने के लिए अन्तरात्मा पुरुषार्थ करते हुए आध्यात्मिक विकास मार्ग में आगे बढ़ती है। आत्मा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक्त्व रूपी दीप के प्रज्वलित होने पर ज्ञानावरणीय आदि घाति कर्मों के आवरण हट जाते हैं तथा अनन्त चतुष्ट्य का प्रकटन होता है और आत्मा अन्तरात्मा से परमात्मा बन जाती है। बिना प्राण का शरीर मुर्दा कहलाता है, ठीक उसी प्रकार बिना अध्यात्म के साधना निष्प्राण है। अध्यात्मिक का अर्थ आत्मिक बल, आत्मस्वरूप का विकास या आत्मोन्नति का अभ्यास होता है। आत्मा के स्वरूप की अनुभूति करना अध्यात्म है। अप्या सो परमप्या आत्मा ही परमात्मा है। अतः कह सकते हैं कि अध्यात्म रूपी पंछी ही प्रमाद में सोये हुए मानव को जागृत कर सकता है, उसे सजगता का पाठ पढ़ा सकता है। मानसिक सन्ताप से सन्तप्त प्राणियों को देखकर ज्ञानियों के मन में करुणा उभर आती है। उपाध्याय यशोविजय के हृदय में भी ऐसा ही करुणा का बीज आप्लावित हुआ होगा, जो उन्होंने भटके हुए प्राणियों को मार्गदर्शन देने हेतु ज्ञानसार, अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, आत्मख्याति, ज्ञानार्णव जैसे विशाल ग्रंथों की रचना की। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भौतिकवाद मिथ्यादृष्टि है और अध्यात्मवाद सम्यक्दृष्टि है। यही अध्यात्मवाद का सारांश दूसरे अध्याय में दिया गया है। तृतीय अध्याय तत्त्वमीमांसा में तत्त्व की विशिष्टता बताते हुए कहा है कि आज का युग विज्ञानयुग है। इस युग में विज्ञान शीघ्र गति से आगे बढ़ रहा है। विज्ञान के नवीन आविष्कार विश्वशांति का आह्वान कर रहे हैं। संहारक अस्त्र-शस्त्र विद्युत् गति से निर्मित हो रहे हैं। आज मानव भौतिक स्पर्धा के मैदान में तीव्र गति से दौड़ रहा है। मानव की महत्त्वाकांक्षा आज दानव के समान बढ़ रही है। परिणामतः वह मानवता को भूलकर निर्जीव यंत्र बनता चला जा रहा है। विज्ञान के तूफान के कारण धर्मरूपी दीपक तथा तत्त्वज्ञान रूपी दीपक करीब बुझने की अवस्था तक पहुंच गये हैं। ऐसी परिस्थिति में आत्मशांति तथा विश्वशांति के लिए विज्ञान की उपासना के साथ तत्त्वज्ञान की उपासना भी अति आवश्यक है। . आज दो खण्ड आमने-सामने के झरोखे के समान करीब आ गए हैं। विज्ञान भले ही मनुष्य को एक-दूसरे के नजदीक लाया है, परन्तु एक-दूसरे के लिए स्नेह और सद्भाव कम हो गया है। इतना ही नहीं, बल्कि मानव ही मानव का संहारक बन गया है। विज्ञान का विकास विविध शक्तियों को पार कर अणु के क्षेत्र में पहुंच चुका है। मानव जल, स्थल तथा नभ पर विजय प्राप्त कर अनन्त अन्तरिक्ष में चन्द्रमा तक पहुंच चुका है। इतना ही नहीं अब तो मंगल तथा शुक्र ग्रह पर पहुंचने के प्रयास भी जारी हैं। भौतिकता के वर्चस्व ने मानव हृदय की सुकोमल वृत्तियों, श्रद्धा, स्नेह, दया, परोपकार, नीतिमता, सदाचार तथा धार्मिकता आदि को कुण्ठित कर दिया है। मानव के आध्यात्मिक और नैतिक जीवन का अवमूल्यन हो रहा है। विज्ञान की बढ़ती हुई उद्यम शक्ति के कारण विश्व विनाश के स्तर पर आ पहुंचा है। अणु आयुधों के कारण किसी भी क्षण विश्व का विनाश हो सकता है। ऐसी विषम परिस्थिति में 571 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org