________________ जैन दर्शन की अपनी निराली देन है। काल की गणना अनस्तिकाय में की है, क्योंकि काल का समूह नहीं होता है। वर्तमानकाल मात्र एक समय का होता है। ये तात्विक विचार स्याद्वाद से उल्लेखित भी हुए हैं। यह अनेकान्तवाद तत्त्व के तेजोमय प्रकाश का एक प्रतिबिम्ब है, जिसको सर्वज्ञों ने भी स्वीकार कर सर्वजनहित में ग्राह्य बनाया है और वही महापुरुष सर्वज्ञता की सिद्धि के प्रणेता बने। इसलिए तत्त्व जैसे तिमिर रहित तेजोमय प्रकाश ने हमारी संस्कृति, हमारा स्वाध्याय पथ और परलोक संबंधी विमर्श, इहलोक संबंधी मन्तव्य तत्त्व के अन्तर्गत आते हैं। उपाध्याय यशोविजय ने भी तत्त्ववाद के ऊपर अपनी विशाल प्रज्ञा को प्रस्तुत कर तत्त्ववादिता का सार जगत् को समझाया, जिसका यह परिणाम है कि हम तात्विक और सात्विक बनते चले आ रहे हैं। यह चिरक्तनी तत्त्वमयी साधना उपासना के रूप में आज भी प्रतिष्ठित है, पूज्य है, परम आराध्य है। युग के दृष्टिकोणों में तत्त्व की विभिन्न अवधारणाएँ बनती ही गई हैं परन्तु वह तत्त्व एक ही है, जो अनेक मन्तव्यों से मान्य हुआ है। ज्ञान के समान उत्तम, पवित्र कोई नहीं है एवं ज्ञान होने के बाद प्रमाण की भी आवश्यकता रहती है। इसलिए चतुर्थ अध्याय में ज्ञानमीमांसा एवं प्रमाणमीमांसा का उल्लेख किया है। ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेति ज्ञानम्-अर्थात् जानना ज्ञान है या जिससे तत्त्व का यथार्थ स्वरूप जाना जाए, उसे ज्ञान कहते हैं। ज्ञानयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मोह का त्याग होने से ही होता है। जैसे राजहंस हमेशा मानसरोवर में मग्न रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी हमेशा ज्ञान में ही मग्न रहते हैं। यशोविजय ने ज्ञानयोग की महत्ता बताते हुए अध्यात्मसार में कहा है __ ज्ञानयोगस्तपः शुद्धयात्मरत्येकलक्षणम्। इन्द्रियार्थार्नीभावात् स मोक्ष सुख साधक।। . ... अर्थात् ज्ञानयोग शुद्ध तप है, आत्मरति उसका एक लक्षण है। ज्ञान इन्द्रियों को विषयों से दूर ले जाता है, इसलिए ज्ञान योग मोक्षसुख का साधक तत्त्व है। ज्ञान को आत्मा का नेत्र भी कहा गया है। जैसे नेत्र विहीन व्यक्ति के लिए सारा संसार अंधकारमय है, उसी प्रकार ज्ञानविहीन व्यक्ति संसार के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाता है। व्यावहारिक जीवन की सफलता एवं आत्मिक/वास्तविक सुख की पूर्णता के लिए प्रथम सोपान/सीढी/ माध्यम/जरिया ज्ञान की प्राप्ति है। इसका उचित स्थान आत्मा ही है। उनको जैन दर्शन में पाँच प्रकार से पहचाना जाता है। ज्ञान स्वयं स्वप्रकाश स्वरूप है। इसे ही भक्ति श्रुत के भेद से संतुलित, समान, समन्वित किया गया है। अवधि एवं मनःपर्यवज्ञान-इन दोनों का जैनदर्शन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। केवलज्ञान एक ऐसा ज्ञान है, जिसमें शेष चार ज्ञानों का समावेश हो जाता है। __ जत्थ भइण्णाणं तत्थ सुयमाणं-जहाँ मतिज्ञान होता है, वहाँ श्रुतज्ञान निश्चित होता है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान-ये दोनों ज्ञान सम्यक् या मिथ्यात्वज्ञान रूप से न्यूनाधिक मात्रा में समस्त संसारी जीवों में रहता है। इन दोनों में कुछ समानताएँ हैं तो कुछ विषमताएँ भी हैं, इसलिए दोनों को भिन्न-भिन्न स्वीकारा गया है। अवधिज्ञान इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा द्वारा रूपी पदार्थ का प्रत्यक्ष करने वाला ज्ञान है। यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की मर्यादा लिए हुए होता है, अतः उसे अवधिज्ञान कहते हैं। अन्य परम्परा में उसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं। 573 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org