________________ के विषय में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता और परिमितता आती जाती है। पूर्ववर्ती नय व्याप्य और उत्तरवर्ती नय व्यापक है। उनके कारण कार्य की योजना भी की जा सकती है। अंत में उपाध्यायजी ने अनेकान्त एवं नय का महत्त्व विशिष्टता बताते हुए कहा है कि अनेकान्त को नव्यन्याय शैली से सुशोभित करने का श्रेय उपाध्याय यशोविजयजी के हाथों में आता है। उन्होंने अधिकारिता से अनेकान्त व्यवस्था में अनेकान्त को सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष इन सभी को लिपिबद्ध करने, अनेकान्त के विषय को विरल, विशद एवं हृदयंगम बनाने का बुद्धिकौशल अपूर्व उपस्थित किया है और अपर हरिभद्र के नाम से अपनी ख्याति को दार्शनिक जगत् में विश्रुत बना गये। नय के विषय में ज्ञानसार के अन्तिम अष्टक में नयज्ञान के फल का सुन्दर निरूपण इस प्रकार किया है-सर्वनयों के ज्ञाता को धर्मवाद के द्वारा विपुल श्रेयस प्राप्त होता है जबकि नय से अनभिज्ञ जन शुष्कवाद विवाद में गिरकर विपरीत फल प्राप्त करते हैं। सर्वनयों पर अवलम्बित ऐसा जिनमत जिनके चित्त में परिणत हुआ और जो उनका सम्यक् प्रकाशन करते हैं, उनको पुनः-पुनः नमस्कार हो। कदाग्रह का विमोचन और वस्तु का सम्यक् बोध नय का फल है और उससे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है और मुक्तिमार्ग की ओर प्रगति बढ़ती है। ___षष्टम अध्याय में उपाध्यायजी ने कर्ममीमांसा एवं योग का विशद विवरण किया है। कर्म सिद्धान्त भारतीय चिन्तकों के चिंतन का मक्खन है। सभी आस्तिक दर्शन का भव्य भवन कर्मसिद्धान्त रूपी नींव - पर ही अवलम्बित है। भले कर्म के स्वरूप में मतैक्य न हो लेकिन सभी दार्शनिकों, विचारकों एवं चिंतकों ने आत्मिक विकास के लिए कर्म-मुक्ति आवश्यक मानी है। यही कारण है कि सभी दर्शनों ने कर्म विषयक अपना-अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। परन्तु जैनदर्शन में कर्म-विषयक चिन्तन बहुत सूक्ष्मता से किया गया है। . .. कर्म क्रियाओं से परिभाषित बनता है, स्वरूपता में ढलता है अर्थात् क्रियाओं से ही कर्म स्वरूपवान रहता है। कर्मस्वरूप स्थिति में रहता हुआ भी पौद्गलिकता परिणाम में ढला हुआ, जड़वत स्वीकारा गया है। इसलिए बंध की क्रिया जटिल बनी गई है, क्योंकि स्वबोध से शून्य है अतः जैन दर्शनकारों ने कर्म को स्वभाव मानकर भी चेतनाशून्य यानी जड़वत् माना है। यही कर्म भिन्न-भिन्न नाम रूप को धारण करता आठ प्रकार के आकारों में परिणमित हुआ है। इस प्रकार कर्म के भेदों से, प्रभेदों से इतना विस्तृत एवं व्यापक बन गया है कि आत्मा जैसे चैतन्यवान् को भी आच्छादित कर बैठा है। इसी महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त की मीमांसा षष्टम् अध्याय में की गई है। मूर्त का अमूर्त पर यानी रूपी का अरूपी पर उपघात यह विधिवत् हमें मिलता है, क्योंकि कर्तृत्व भाव और कर्मभाव परस्पर सापेक्ष हैं। इनकी सापेक्षता की चर्चा कर्ममीमांसाओं में वर्णित मिलती है। यही कर्म जड़वत् यानी चेतना रहित होता हुआ भी जन्मान्तरीय संगति का त्याग नहीं करता है। इसलिए जीव और कर्म भी अनादि संगति शास्त्रों में वर्णित है और कर्मविषयक जैसे अंगसूत्रों का उदय हुआ। महर्षियों में कर्मबन्ध के प्रतिपक्ष स्वरूप को भी वर्णित कर जीव को सावधान बनाया है। अनेक उपायों से कर्म से रहित करने का रास्ता दिखाया है और अंत में सर्वथा कर्मबन्ध रहित रहने का उपेदश और उदाहरण देकर सत्यता को स्पष्ट किया है। गुणस्थानक में कर्म का विचार क्या होता है, उनका भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है। उसमें कर्म स्थितियों पर, परिस्थितियों पर पुनः-पुनः विचार कर कर्म 577 39 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org