Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 661
________________ नहीं होती तो अनेकान्त की कोई अपेक्षा नहीं होती, चूंकि वस्तु वैसी है अतः अनेकान्त की अनिवार्य अपेक्षा है। अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत वस्तु की विरोधी अनन्त धर्मात्मकता ही है। अनेकान्त वस्तु के स्वरूप का निर्माण नहीं करता। वस्तु का स्वरूप स्वभाव से है। वह ऐसा क्यों है, इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। स्वभावे तार्किका भग्ना-वस्तु का जैसा स्वरूप हो, उसकी व्यवस्था करना अनेकान्त का कार्य है। अनेकान्त वस्तु के विरोधी धर्मों में समन्वय के सूत्रों को खोजने वाला महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, वही अनेकान्त का स्वरूप है। जैन दर्शन का प्राणतत्त्व अनेकान्त है। जैसे अनेकान्त का दार्शनिक स्वरूप एवं उपयोग है, वैसे ही जीवन में व्यावहारिक पहलुओं से जुड़ी समस्याओं का समाधान भी हम अनेकान्त के आलोक में प्राप्त कर सकते हैं। भगवान महावीर का उद्घोष रहा-आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त का प्रकाश हो। अहिंसा अनेकान्त का व्यावहारिक पक्ष है। विश्व का कोई भी व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ या दृष्टान्त अनेकान्त के बिना नहीं घटता है, ऐसा जैनदर्शन का मानना है। अन्य दर्शनकारों ने भी किसी-न-किसी रूप में अनेकान्त का आश्रय लिया है। सत्य प्राप्ति की बात तो दूर, अनेकान्त के अभाव में आश्रय समान परिवार आदि के संबंधों का निर्वाह भी सम्यक् रूप से नहीं हो सकता है। अनेकान्त सबकी धूरी है, इसलिए वह समूचे जगत् का एकमात्र गुरु और अनुशास्ता है। सच्चा सत्य एवं उत्तम व्यवहार उसके द्वारा निरूपित हो रहा है। अनेकान्त त्राण है, शरण है, गति है और प्रतिष्ठा है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि चाहे अर्थतंत्र हो या राजतंत्र, या धर्मतंत्र अनेकान्त दृष्टि को स्वीकार किये बिना वह सफल नहीं हो सकता। यह सिद्धान्त दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन में विरोधी को समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करता है, जिससे मानव जाति के संघर्षों के निराकरण में सहायता मिल सकती है। इसलिए कह सकते हैं कि अनेकान्तवाद का महत्त्व अद्वितीय, अलौकिक एवं अविस्मरणीय है। श्रमण भगवान महावीर ने सत्य की शोध के लिए सापेक्ष दृष्टिकोण का निर्धारण किया। सापेक्षता का मूल आधार नयवाद है। सम्पूर्ण सत्य एकमात्र कहने का सामर्थ्य सर्वज्ञ पुरुषों में भी नहीं होता है। पूर्ण सत्य को कहने के लिए उसे खण्ड में बांटा जाता है। खण्ड सत्यों को मिलाकर सम्पूर्ण सत्यों को जाना जाता है। इसी अभिप्राय से ही नयवाद को अनेकान्तवाद का आधार कहा जाता है। खण्ड सत्य अथवा अभिप्राय विशेष से कहा गया कथन ही नय कहलाता है। नय से जुड़ा हुआ सिद्धान्त नयवाद कहलाता है। नय सिद्धान्त की समुचित अवगति एवं व्यवस्था के द्वारा तत्त्वमीमांसीय, आचारशास्त्रीय, सामाजिक, राजनैतिक आदि सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। विवाद वहां उत्पन्न होता है, जहाँ I am right, you are wrong की अवधारणा हो, किन्तु जब परस्पर एक-दूसरे की अपेक्षा दृष्टि को समझ लिया जाता है, तब विरोध या विवाद स्वतः समाहित हो जाता है। अतः नयवाद का उपयोग मात्र सैद्धान्तिक क्षेत्र में ही नहीं किन्तु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी अत्यन्त उपयोगिता है। नयवाद के बाद नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत आदि सात नयों का स्वरूप रूपों को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से ग्रहण किया जाता है। इनका विचार क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है अतः विषय की व्यापकता भी क्रमशः अल्पतर होती जाती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न नयों 576 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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