Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 655
________________ . मा अन्यान्य परम्पराओं का परमबोध करते हुए, अपने स्वोपज्ञ ग्रंथों में उनका समुल्लेख करते हुए, संशयापंन्न विषयों का निराकरण करते हुए वे सदैव निर्द्वन्द्व रहे। जैसा कि शास्त्रवार्ता समुच्चय की टीका स्याद्वाद कल्पलता में सभी प्रकार से स्याद्वाद का उल्लेख करते हुए अपने मन्तव्यों को मान्यता से महत्त्वपूर्ण सिद्ध करते हुए एक अद्भुत दार्शनिक के रूप में प्रगट हुए। संक्षेप में श्रुत को कामधेनु स्वीकार कर इस प्रकार से दोहन किया, जो दूध, नवनीत आज भी प्राज्ञजन पी रहे हैं यानी स्वाद ले रहे हैं। यही उनकी समदर्शिता का विपाक है, परिणाम है। इस प्रकार शोध ग्रंथ का प्रथम अध्याय उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करता है। द्वितीय अध्याय उपाध्याय यशोविजय का अध्यात्मवाद-अध्यात्मवाद से हमारा तात्पर्य क्या है? अध्यात्म शब्द की व्युत्पत्ति अधि+आत्मा से है। अर्थात् वह आत्मा की श्रेष्ठता या उच्चता का सूचक है। आचारांग में उसके लिए अज्झप्प या अज्झत्थ शब्द का प्रयोग है, जो आन्तरिक पवित्रता या आंतरिक विशुद्धि का सूचक है। जैन धर्म के अनुसार अध्यात्मवाद वह दृष्टि है, जो यह मानती है कि भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है, दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों के परे उच्च मूल्य भी है और इन उच्च मूल्यों की उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। जैन विचारों की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है-पदार्थ को परममूल्य न मानकर आत्मा को परममूल्य मानना। . जैन धर्म विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक धर्म है। उसका चरम बिन्दु है-आत्मोपलब्धि या आत्मा की स्व-स्वरूप में उपस्थिति। अध्यात्म्सार में उपाध्यायजी ने कहा-आत्मा को जानने के बाद कुछ जानने योग्य शेष नहीं रहता है। परन्तु जिसने आत्मा को नहीं जाना, उसका वस्तुगत ज्ञान निरर्थक है, जैसे ज्ञाते छा हयत्मनि नो भूयो ज्ञातव्यमवशिष्यते। अज्ञाते पुनरेतस्मिन् ज्ञानमन्यन्निरर्थकम् / / -अध्यात्मसार आत्मा सूर्य के समान तेजस्वी है, किन्तु वह कर्म की घटाओं से घिरी हुई है, जिसमें उसके दिव्य प्रकाश पर आवरण आ चुका है। उसका विशुद्ध स्वरूप लुप्त हो चुका है। विश्व की प्रत्येक आत्मा में शक्ति का अनन्तस्तोत्र प्रवाहित है। जिसे अपनी आत्मशक्ति पर विश्वास हो जाता है और जो अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए अर्थात् विभाव दशा को छोड़कर स्वभाव दशा में आने के लिए पुरुषार्थ आरम्भ करता है, वह साधन कहलाता है। खान में से निकले हीरे की चमक अल्प होती है परन्तु जब उसे अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं से स्वच्छ कर तराश दिया जाता है तो उसकी चमक बढ़ जाती है। ठीक उसी प्रकार आत्मा की प्रथम अवस्था कर्म से मलिन अवस्था है किन्तु विभिन्न प्रकार की साधनाओं द्वारा निर्मलता को प्राप्त करते हुए परमात्म पद को भी प्राप्त कर लेता है। छान्दोग्योपनिषद् में भी कहा है-यः आत्मवित स सर्ववित् अर्थात् जो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है। आचारांग सूत्र में भी कहा है-जो अध्यात्म अर्थात् आत्मस्वरूप को जानता है, वह बाह्य जगत् को जानता है। जैसे-जे अज्झत्थ जाणइ से बहिया जाणई। क्योंकि बाह्य की अनुभूति भी आत्मगत ही है। इस संसार में जानने योग्य कोई तत्त्व है तो वह आत्मा ही है। आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है। एक बार आत्म तत्त्व में, उसके स्वरूप में रुचि जगने के बाद फिर दूसरी वस्तुएँ तुच्छ और निरर्थक लगती है। और अन्य द्रव्यों का ज्ञान आत्मज्ञान को 570 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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