Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 637
________________ नैयायिक वैशेषिक उपाध्याय यशोविजय कहते हैं चित्रमेकमनेकंच रूपं प्रामाणिकं वदन। योगो वैशेषिको वाऽपि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत।।16 जो एक ही वस्तु चित्ररूप या अनेकरूप मानते हैं, वे नैयायिक या वैशेषिक भी अनेकान्तवाद का अनादर नहीं कर सकते हैं। जो स्वयं एक ही घट में व्याप्यवृत्ति की अपेक्षा एकचित्ररूप एवं अव्याप्यवृत्ति की अपेक्षा विलक्षण चित्ररूपों को मान्य करते हैं, उनके लिए अनेकान्त का अनादर करना, यानी स्वयं के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। स्याद्वाद के उन्मूलन से उनके अपने मंतव्य का ही उन्मूलन हो जाएगा। एकानेक रूपों का एक ही धर्मों में समावेश करना ही अनेकान्तवाद की स्वीकृति है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं-वैशेषिक दर्शन में जैनदर्शन के समान ही प्रारम्भ से जिन तीन पदार्थों की कल्पना की मई, वे इसके गुण और कर्मे हैं, जिन्हें हम जैनदर्शन के द्रव्य, गुण और पर्याय कह सकते हैं। अनुभूति के स्तर पर द्रव्य के प्रथम गुण तथा द्रव्य और गुण से पृथक् कर्म नहीं होते हैं। यही उनका भेदाभेद है, यही तो अनेकान्त है।” वैशेषिक सूत्र में भी कहा गया है "द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च"-द्रव्य, गुण और कर्म को युगपद सामान्य, विशेष, उभय रूप मानना, यही तो अनेकान्त है। पुनः वस्तु सत् असत् रूप है-इस तथ्य को भी कणाद महर्षि ने अन्योन्य भाव के प्रसंग में स्वीकार किया है। तात्पर्य यह है कि वस्तु स्वस्वरूप की अपेक्षा से अस्तिरूप है और पर-स्वरूप की अपेक्षा नास्तिरूप है। यही तो अनेकान्त है, वैशेषिकों को भी मान्य है। 1 बौद्धदर्शन में अनेकान्तवाद उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि बौद्धदर्शन भी अनेकान्तवाद से मुक्त नहीं है। वे कहते हैं विज्ञानस्यैकमाकारं नानाकारकरम्बितम्, इच्छं तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्त प्रतिक्षिपेत।। विचित्र आकार वाली वस्तु का एक आधार वाले विज्ञान में प्रतिबिम्बित होने को मान्य करने वाले प्राज्ञ बौद्ध भी अनेकान्तवाद का अपलाप नहीं कर सकते हैं। . शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों एकान्तों को अस्वीकार करने वाले गौतम बुद्ध की स्याद्वाद में मूक सहमति तो है ही। एकान्तवाद से बचने के लिए बुद्ध ने या तो मौन का सहारा लिया या विभज्यवाद को अपनाया अथवा निषेधमुख से मात्र एकान्त का खण्डन किया। बौद्ध परम्परा में विकसित शुन्यवाद तथा जैन परम्परा में विकसित अनेकान्तवाद दोनों का ही लक्ष्य अनेकान्तवादी धारणाओं को अस्वीकार करना था। दोनों में फर्क इतना ही है-"शून्यवाद निषेधपरक शैली को अपनाता है, जबकि अनेकान्तवाद में विधानपरक शैली अपनाई गई है।" 555 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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