Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

Previous | Next

Page 642
________________ . महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है और सांख्यमत के प्रवर्तक कपिलऋषि के प्रति मेरा द्वेष नहीं है। महावीर मेरे मित्र नहीं हैं, कपिल मेरे शत्रु नहीं हैं। जिनका वचन युक्तिसंगत है, वही मुझे मान्य है। जिसके हृदय में स्याद्वाद का प्रकाश है, वह साधक गुणग्राही होने के कारण नाममात्र के भेद से कदाग्रह नहीं करता है। अध्यात्म गीता में कहा गया है परस्पर विरुद्धा या असंख्या धर्मदृष्टयः। अविरुद्धा भवन्त्येव सम्प्राप्याध्यात्मवेदिनम्।।146 अर्थात् परस्पर विरुद्ध ऐसे धर्मदर्शन हैं, जो स्याद्वादी के हाथ में जाकर विरोध मुक्त बन जाते हैं। स्याद्वाद विविध दार्शनिक या एकान्तवादी में समन्वय करने का प्रयास करता है। शास्त्रवार्ता-समुच्चय की टीका में उपाध्यायजी द्वारा उसमें विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों का समन्वय किया गया है। उनकी दृष्टि में अनित्यवाद, नित्यवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद आदि सभी वस्तु स्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है किन्तु पूर्ण सत्य भी नहीं है। स्याद्वाद इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तभी असत्य बन जाता है, जबकि हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं। अनेकान्तदृष्टि वाले को आग्रह-कदाग्रह नहीं होता है। स्वदर्शन में जो बात कही गई, वह अमुक नय की अपेक्षा से कही गई और अन्य दर्शन में कही हुई बात भी अमुक नय की अपेक्षा से सत्य है। जैसे संसार के लोगों के प्रति तीव्र आसक्ति को तोड़ने की दृष्टि से “सर्व क्षणिकम्"-यह बौद्ध दर्शन की बात उपयोगी है, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से भी सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं, नश्वर हैं। जैन दर्शन में भी अनित्य भावना बताई गई है। इस अपेक्षा से स्याद्वादी बौद्धदर्शनों के द्वारा मान्य क्षणिकवाद को स्वीकार करेगा। अन्य दर्शनों में कही हुई बात को उचित अपेक्षा से स्वीकार करने की बात स्याद्वाद कहता है। वेद और उपनिषदों के अलग-अलग वचनों के बीच आते हुए विरोध को भी स्याद्वाद से परिहार कर सकते हैं। अनेकान्त आए बिना तटस्थता नहीं आ सकती है। अनेकान्त को अपनाकर सारे सामुदायिक झगड़े सुलझाये जा सकते हैं। परमयोगी आनन्दघनजी लिखते हैं कि अन्य दर्शनों को जिनमत के ही अंग कहकर उन्होंने हृदय की विशालता का परिचय दिया। स्याद्वाद को हृदयंगम किए बिना यह बात नहीं कही जा सकती। जिस प्रकार हाथ-पैर या किसी भी अंग के कट जाने पर व्यक्ति अपंग हो जाता है, उसी प्रकार किसी भी दर्शन की काट करना, टीका करना, अपनी अज्ञानता का परिचय देना है। संक्षेप में कह सकते हैं कि विविध और परस्पर विरोध रखने वाली मान्यताओं का विपरीत तथा विघातक विचारश्रेणियों का समन्वय करके सत्य की शोध करना, दार्शनिक क्लेशों को मिटाना सभी धर्मी एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को मोतियों की माला के समान एक ही सूत्र में पिरो देना, यही स्याद्वाद की महत्ता है। - 560 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690