Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ कुमारिल भट्ट द्वारा पदार्थ को उत्पत्ति, विनाश और स्थितियुक्त मानना अवयवी और अवयव में भेदाभेद मानना, सामान्य और विशेष को सापेक्ष मानना आदि तथ्यों से इस बात को बल मिलता है कि उनके दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में कहीं-न-कहीं अनेकान्त के तत्त्व उपस्थित हैं। पातंजल योगसूत्र की राजमार्तण्ड टीका में भोजदेव ने प्रतिपादित किया है, जैसे रुचक को तोड़कर स्वस्तिक बनाने में सुवर्ण रुचक परिणाम को त्यागकर स्वस्तिक परिणाम को धारण करता है और स्वयं स्वर्ण, स्वर्णरूप में अनुगत ही है। स्वर्ण से कथंचित् अभिन्न ऐसे रुचक तथा स्वस्तिक अपने परिणामों में भिन्न-भिन्न हो, किन्तु उनमें सामान्य धर्मीरूप सुवर्ण रहता है। इस प्रकार भोजराजर्षि सामान्य विशेष उभयात्मक वस्तु को सिद्ध करके स्याद्वाद का ही सम्मान करते हैं। वेदान्त दर्शन में स्याद्वाद की स्वीकृति ___ उपाध्याय यशोविजय 'सभी दर्शनों में स्याद्वाद अन्तर्निहित है' यह सिद्ध करते हुए कहते हैं-ब्रह्मतत्त्व परमार्थ से बंधनरहित है और व्यवहार से बंधा हुआ है, इस प्रकार कहने वाले वेदान्ती अनेकान्तवाद का अनादर नहीं कर सकते हैं। 20 निम्बार्कभाष्य की टीका में श्रीनिवास आचार्य कहते हैंजगत् ब्रह्मणोर्मेदाभेदौ स्वाभाविको श्रुति-स्मृति-श्रुतसाधितौ भवतः कः तत्र विरोध?n अर्थात् जगत् और ब्रह्मतत्त्व का परस्पर भेदाभेद स्वाभाविक है। श्रुति, वेद, उपनिषद्, स्मृति स्वरूप शास्त्रों से सिद्ध है, इस कारण से उनमें विरोध कैसा? इस प्रकार श्रीनिवास आचार्य भी अनेकान्त की अवहेलना नहीं कर सकते हैं। उपनिषदों में अनेकान्तवाद उपाध्याय यशोविजय कहते हैं ब्रवाणा भिन्न-भिन्नार्थान् नयभेद व्यपेक्षया। प्रतिक्षिपेयु!वेदाः स्याद्वादं सार्वतान्त्रिकम् / / भिन्न-भिन्न नयों की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न अर्थी का प्रतिपादन करने वाले वेद भी सार्वतान्त्रिक, सर्वदर्शन व्यापक ऐसे स्याद्वाद का विरोध नहीं कर सकते। वेद और उपनिषद् में तो स्याद्वाद का स्पष्ट प्रतिबिम्ब उपलब्ध होता है। अथर्वशिर उपनिषद् में कहा गया है सोऽहं नित्यानित्यो व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माऽहं। मैं नित्यानित्य हूँ, मैं व्यक्त-अव्यक्त ब्रह्मस्वरूप हूँ। छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है-"आकाशे रमन्ते आकाशे न रमन्ते"। ऋग्वेद में लिखा है-"नाऽसदासीत नो सदासीत तदानी"। अर्थात् तब वह असत् भी नहीं था और सत भी नहीं था। सुबाल उपनिषद् में कहा गया है कि "न सन्नाऽसन्न सदसदति"1" अर्थात् वह सत् नहीं, वह असत् नहीं, वह सदसत् नहीं। मुण्डकोपनिषद् का वचन है-सदसघरेण्यम्-श्रेष्ठ तत्त्व सदसत् है। ब्रह्माविद कहा गया है-नैव चिन्त्यं न चांचिन्त्वं अचिन्त्य, चिन्तयमेव च। अर्थात् वह चिन्त्य नहीं और अचिंत्य भी नहीं तथा 557 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org