Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ // जैसे माता को अपने सब बच्चों के प्रति सम्मान, स्नेह होता है, ठीक वैसे ही जिस अनेकान्तवाद की सब नयों के प्रति समान दृष्टि होती है, उस स्याद्वादी या अनेकान्तवादी को एक नय में हीनता की बुद्धि और अन्य नय के प्रति उच्चता की बुद्धि कैसे होगी? अर्थात् किसी भी नय में हीनता या उच्चता की बुद्धि स्याद्वादी को नहीं होती है। इस प्रकार की निर्मल दृष्टि हो जाने पर व्यक्ति में समत्व का विकास होता है। एकान्तवादी दर्शनों के सिद्धान्त किस तरह अनेकान्तवाद में सम्मिलित हैं, इस विषय का सम्यक् सतर्क प्रतिपादन उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में किया है। अनेकान्तवाद का क्षेत्र इतना व्यापक है कि किसी भी क्षेत्र में इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः। गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वादद्विजनोऽपि कः।।" अर्थात् दही के रूप में जो उत्पन्न हुआ है और वही दूध के रूप में नष्ट हुआ है तथा वही गोरस के रूप में स्थायी है, इस प्रकार जानते हुए भी कौन व्यक्ति ऐसा होगा कि जो स्याद्वाद से द्वेष करे? स्थायी ऐसे गोरस में पूर्वकालीन दूध की पर्याय का नाश और उत्तरकालीन वही पर्याय की उत्पत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होने के कारण विरुद्ध नहीं है। अतः वस्तुद्रव्य पर्याय उभयात्मक होने से उत्पादव्ययधोव्यात्मक सिद्ध होती है। सांख्य दर्शन में स्याद्वाद . उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-सत्व, रजस और तमस-इन तीन विरोधी गुणों से युक्त प्रकृति तत्त्व को स्वीकार करने वाले बुद्धिशालियों में मुख्य ऐसा सांख्य अनेकान्तवाद का प्रतिपक्ष नहीं करता है। क्योंकि स्याद्वाद का विरोध करने पर उसको मान्य प्रधान प्रकृति तत्त्व का ही उच्छेद हो जाएगा। परस्पर विरोधी गुण धर्म से युक्त प्रकृतितत्त्व को स्वीकार करना तथा अनेकान्तवाद का विरोध करना तो जिस डाली पर बैठे, उसी को काटने जैसा होगा। साथ ही सांख्य दर्शन प्रकृति में प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों गुणों को स्वीकार करता है। सांसारिक पुरुषों की अपेक्षा से वह प्रवृत्त्यात्मक और मुक्तपुरुष की अपेक्षा से निवृत्त्यात्मक देखी जाती है। इसी प्रकार पुरुष में ज्ञान-अज्ञान, कर्तृत्व-अकर्तृत्व, भोक्तृत्व-अभोक्तृत्व के विरोधी गुण रहते हैं। सांख्य दर्शन की इस मान्यता को महाभारत में भी स्पष्ट किया गया है, उसमें लिखा है कि यो विद्वान सहसंवास विवासं चैव पश्यति। तथैवैकत्व नानात्वे स द्वारवात परिमुच्यते।।" अर्थात् जो विद्वान् जड़ और चेतन के भेदाभेद को तथा एकत्व और नानात्व को देखता है, वह दुःख से छूट जाता है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं-जड़ और चेतन का यह भेदाभेद तथा एकत्व में अनेकत्व और अनेकत्व में एकत्व की यह दृष्टि अनेकान्तवाद की स्वीकृति के अतिरिक्त और क्या हो सकती है। यही भेदाभेद की दृष्टि अनेकान्त की आधारभूमि है, जिसे किसी-न-किसी रूप में सभी दर्शनों को स्वीकार करना ही होता है। 554 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org