Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________ से तथ्य ऐसे हैं, जिन्हें सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है, जिन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं। 'ए डिफेंस ऑफ कॉमन सेंस' लेख में मूर ने ऐसे कई उदाहरण दिये हैं। एक दार्शनिक सिद्धान्त है-किसी जड़ वस्तु की सत्ता नहीं है। इसके विरोध में मूर का मत है कि यह सिद्धान्त पूर्णतः असत्य है, क्योंकि यह मेरा बायां हाथ है और यह मेरा दायां हाथ है, अतः कम से कम दो जड़-वस्तुओं की सत्ता है। एक और उदाहरण लीजिए-काल असत् है। मूर का उत्तर है कि यदि इसका तात्पर्य यह है कि घटनाओं में पूर्ववर्ती और परवर्ती का क्रम नहीं है तो यह सिद्धान्त अवश्य ही असत्य है। मैं अपने अनुभव से जानता हूँ कि पहले मैंने चाय लिया, फिर नाश्ता किया। इसका अर्थ यह नहीं है कि सामान्य बुद्धि के तथ्यों के विषय में मूर को कोई उलझन या कठिनाई महसूस नहीं हुई। मूर इस सम्बन्ध में पूर्णतः आश्वस्त था कि हमें वस्तुओं का ज्ञान होता है। अतः मूल प्रश्न यह है कि क्या हम वस्तुओं को जानते हैं, बल्कि यह कि हम वस्तुओं को कैसे जानते हैं। इसी प्रकार मूर के अनुसार हम सामान्य बुद्धि के कथनों को सत्य मानते हैं, किन्तु उनमें विश्लेषण और अर्थ स्पष्ट नहीं रहते। 50 अतः मूर की दो समस्याएँ थीं-वस्तुओं का ज्ञान कैसे होता है और वादियों का विश्लेषण एवं अर्थ कैसे स्पष्ट हो? दोनों समस्याएँ मूर को विश्लेषण की ओर ले जाती हैं। मूर ने कहीं भी यह स्पष्ट नहीं किया कि विश्लेषण का स्वरूप क्या है? उसकी रुचि प्रणाली में थी ही नहीं। मूर ने यह भी नहीं माना कि दर्शन मात्र विश्लेषण है या कि विश्लेषण केवल शब्दों और वाक्यों का है।। मूर ने माल्कम का यह मत भी स्वीकार नहीं किया कि उसके अनुसार दर्शन भाषिक है। किन्तु मूर की सामान्य बुद्धि की स्थापना, विश्लेषण एवं साधारण भाषा के प्रयोग की स्वीकृति ने साधारण भाषा दार्शनिकों को प्रभावित किया। अतः संक्षेप में यह जान लेना आवश्यक है कि मूर के विश्लेषण का उपयोग किस प्रकार किया। उसके अनुसार यह विश्लेषण एक वाक्य का अन्य सरल एवं स्पष्ट वाक्यों में तार्किक अनुवाद है। परिभाषा का परिभाषेय से सरल एवं स्पष्ट होना आवश्यक है, किन्तु दोनों का अर्थ एक ही होना चाहिए। शब्दों का अनेकार्थ तथा अस्पष्ट होना तथा दर्शनिकों द्वारा शब्दों को मनमाने रूप में प्रयुक्त करना मूर के लिए उलझनें उत्पन्न करना है। अतः विश्लेषण द्वारा भ्रांतियों, उलझनों तथा मतभेदों को दूर किया जा सकता है किन्तु वह सम्प्रत्ययों, प्रत्ययों एवं अर्थों तक ही सीमित रहता है। विश्लेषण की प्रक्रिया में मूर ने साधारण भाषा का आश्रय लिया, किन्तु उसने कभी भी साधारण प्रयोगों का विस्तार में उल्लेख नहीं किया। उनके अनुसार अर्थ एवं विश्लेषण दोनों - का सम्बन्ध सम्प्रत्ययों से है। यह मूर की भूल थी। मेत्स की इस युक्ति में काफी सच्चाई है कि मूर एक अच्छा प्रश्नकर्ता किन्तु बुरा उत्तरदाता था।15 किन्तु मूर के निष्कर्ष चाहे जो हो, उसकी दार्शनिक प्रणाली ने परवर्ती दार्शनिकों को बहुत ही अधिक प्रभावित किया। माल्कम की निम्न युक्ति यद्यपि मूर के मन्तव्यों को व्यक्त नहीं करती किन्तु उसकी विधि एवं प्रभाव का उचित मूल्यांकन है। मूर का महान् दार्शनिक इस तथ्य के विहित है कि संभवतया वह प्रथम दार्शनिक है, जिसने यह अनुभव किया कि कोई भी दार्शनिक कथन जो साधारण भाषा का उल्लंघन करता है, असत्य है और जिसने सतत रूप से उल्लंघन करने वालों से साधारण भाषा की रक्षा का भरसक प्रयास किया।'s रसल और मूर के बाद पूर्ववर्ती विंट्गेस्टाइन और तर्कीय अनुभववादियों ने साधारण भाषा दर्शन की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। एक प्रचलित व्याख्या के अनुसार प्रिंसिपिया ट्रकटेट्स लाजिको फिलोसोफिक्स में विंटगेस्टाइन का उद्देश्य प्रिंसिपिया मैथमेटिका के निर्देश पर एक कृत्रिमपूर्ण भाषा की रचना करना था, जो साधारण भाषा का स्थान ले सके, जो पूर्णतः सत्यव्यापक परक हो, जिसमें केवल 459 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org