Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 580
________________ * प्रतिध्वनित हुई है। उन्होंने भी यही कहा है कि जो सबको नहीं जानता, वह एक को भी नहीं जानता और जो एक को नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता। बात एक ही है, क्योंकि सबका जानना एक आत्मा के जानने से होता है। इसलिए आत्मा का जानना और सबका जानना एक है। तात्पर्य यह है कि जो सबको नहीं जानता, वह एक आत्मा को भी नहीं जानता। रहस्यभावना का मूल जिज्ञासा का तत्त्व भी आचारांग में स्पष्टतः उपस्थित है। आचारांग का प्रारम्भ आत्म-जिज्ञासा से होता है, जो रहस्य भावना का मूल बीज है। इसका प्रथम सूत्र है के अहं आसी के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि।। "मैं कौन था" मैं अगले जन्म में क्या होऊँगा? आदि। जिज्ञासा का अन्तर्मन में उठना सम्यग्दर्शन प्राप्ति का प्रथम चरण है। यह नितान्त सत्य है कि रहस्य के प्रति जिज्ञासा की भावना उद्भुत होती है, तभी साधक व्यवहार की भूमिका से ऊपर उठकर वास्तविकता की खोज में अग्रसर होता है। इसीलिए आत्म-शोधन की प्रणाली गूढ़ कहलाती है। संक्षेप में, रहस्यवाद का मर्म आत्मा की शोध है। उसे पा लेने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता, गूढ़ नहीं रहता।162 ... * रहस्यदर्शी तीर्थंकरों के बाद परवर्ती काल में भी आध्यात्मिक रहस्यवादी जैन सन्त-साधकों एवं कवियों की एक लम्बी परम्परा रही है, जिनमें प्रमुख रूप से आचार्य कुन्दकुन्द विक्रम की पहली से चौथी शती के बीच, मुनि कार्तिकेय (लगभग 2-7वीं शती), पूज्यपाद (विक्रम की 5-6वीं शती), योगीन्द्र मुनि (लगभग ईसा की छट्ठी शती), मुनि रामसिंह (11वीं शताब्दी), आचार्य हरिभद्र (8वीं शताब्दी), बनारसीदास (17वीं शताब्दी), आनन्दघन (17वीं शती) तथा उपाध्याय यशोविजय (18वीं शती) आदि का नाम उल्लेखनीय है। जैन साहित्य में रहस्यवादी काव्य रचना का प्रारम्भ आचार्य कुन्दकुन्द से माना जाता है। इनकी समयसार, मोक्षपाहुड, भावपाहुड आदि अनेक रहस्यवादी रचनाएँ हैं, जिनमें भावनात्मक अनुभूति अभिव्यक्त हुई है। मोक्षपाहुड में इन्होंने आत्मा के तीन भेदों की चर्चा करते हुए कहा है कि अन्तरात्मा के उपाय से बहिरात्मा का परित्याग कर परमात्मा का ध्यान करो। इन्होंने यह भी स्पष्ट शब्दों में कहा है कि आत्मा और परमात्मा में तत्वतः कोई अन्तर नहीं है। आत्मा ही परमात्मा है। कर्मावरण के कारण ही - आत्मा निजस्वरूप से वंचित है। प्रत्येक आत्मा कर्मादि से रहित होकर उसी प्रकार परमात्मा बन सकता है, जिस प्रकार स्वर्ण-पाषाण शोधन सामग्री द्वारा शुद्ध स्वर्ण बन जाता है। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में भावात्मक रहस्यवाद की विवेचना हुई है। - कुन्दकुन्द के रहस्यवादी साहित्य का प्रभाव उनके उत्तरवर्ती आचार्यों की रचनाओं में स्पष्टतः देखा जा सकता है। इन सभी रहस्यवादी कवियों में कुन्दकुन्द के समान ही आत्मा के त्रिविध भेदों की विचारणा पाई जाती है। पूज्यपाद की समाधिशतक एवं अध्यात्मरहस्य रचनाएँ आध्यात्मिक रहस्य प्रधान हैं। योगीन्दु मुनि के परमात्म प्रकाश एवं योगसार में रहस्यवादी प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। रहस्यवादी कवियों की भांति उनका भी यह विश्वास है कि परमात्मा का निवास शरीर में ही है। उन्होंने कहा है कि जो शुद्ध निर्विचार आत्मा लोकाकाश के अग्रभाग में स्थित है, वही इस देह में भी विद्यमान है। साथ ही इसी शरीर में उसके दर्शन करने का निर्देश भी किया है।165 उनका यह भी कथन है कि शरीर स्थित जो यह आत्मा है, वही परमात्मा है।166 500 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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